जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
इस चिन्तनीय स्थिति से कुछ त्राण मुझे एक दूसरे नक्षत्र-पुरुष ने दिलाया।
उनका नाम रनवीरसिंह बावा था।
उनसे मेरा प्रथम परिचय 1950 में धर्मशाला में हुआ था, जहाँ मैं अपने मित्र महाराज कृष्ण रसगोत्र के साथ कुछ समय बिताने के लिए गया था। उस समय तक वे दोनों कुँवारे थे और अपने एक और कुँवारे मित्र के साथ 'माउंट प्लेजेण्ट' में रहते थे। तीनों साथी वहाँ के एक डिग्री कॉलेज में अध्यापक थे। मुझे 'माउंट प्लेजेण्ट' की विशेष स्मृति इसलिए है कि वहाँ रहते हुए मैंने अपनी 'मिलन यामिनी' को अन्तिम रूप दिया था, और उसकी प्रेस कापी बनाई थी।
केम्ब्रिज में बावा स्टेटिसटिक्स (सांख्यिकी) में डिप्लोमा करने के लिए आये थे। एक दिन किसी बातचीत के सिलसिले में उन्होंने बताया कि उनका साप्ताहिक खर्च तीन-साढ़े तीन पौण्ड आता है। मैं तो फौरन इसका गुर सीखने के लिए उत्सुक हो गया।
बावा ने रहने के लिए एक ऐसी 'डिग' खोज ली थी, जहाँ कमरे में गैस का चूल्हा था, और वे अपने लिए रात का खाना स्वयं बनाते थे। उन्होंने बताया कि यहाँ खाने-पीने की चीजें महँगी नहीं हैं, हाँ, आदमी ज़रूर महँगा है, वह जिस चीज़ में अपना श्रम लगायेगा, वह ज़रूर महँगी हो जायेगी। सूप, सब्जी, डबलरोटी वही; लैण्डलेडी गरम कर देगी, उबाल देगी, टोस्ट बना देगी तो उसका दाम चौगुना लेगी। ज़रूरी बर्तन लैण्डलेडी से मिल जाते हैं। सब्जी, डबलरोटी, अण्डा, नमक, चीनी, चीज़, मक्खन, फल आदि हफ्ते में एक बार लाकर रख दो, खराब नहीं होते, सारा मुल्क ही फ्रीजिडेयर है-ठण्ड इतनी पड़ती है। कितनी ही चीजें टिन-बन्द मिलती हैं, उन्हें बस खोलो, गरम करो, खाओ। उन्होंने मुझे बताया कि खाना बनाने पर वे पन्द्रह मिनट से ज़्यादा सर्फ़ नहीं करते।
बावा ने मेरे लिए गैस चूल्हे वाले कमरे की डिग खोज दी। एक दिन मेरे साथ चलकर ज़रूरी सामान खरीदवा दिया। मेरे कमरे में आकर कई शामों को उन्होंने मुझे खाना बनाने की शिक्षा दी। मेरा इम्तहान भी उन्होंने लिया। और मैं अच्छे नम्बरों से.पास हुआ, यानी एक दिन मैंने उन्हें अपने हाथ से बनाकर खाना खिलाया और वे खाकर प्रसन्न-सन्तुष्ट हुए। केम्ब्रिज में आकर मैंने बहुत-कुछ नया सीखा और बहुत-से गुरु किये। सुनते हैं, दत्तात्रेय ने चौबीस गुरु किये थे। 'एकाक्षर प्रदातारं योन गुरुमभि मन्यते' की आन पर चलूँ तो केम्ब्रिज में किये मेरे गुरुओं की संख्या चौबीस से कम न आयेगी। मुझे याद आ रहा है, डिग की एक लड़की ने मुझे कमीज़ में बटन लगाना सिखाया था। बटन तो कमीज़ों के टूटते ही थे, और तेजी वहाँ टाँकने के लिए नहीं, या टाँकना भूल जाने पर डाँटने के लिए। वहाँ तो किसीन-किसी तरह अपने आप ही टाँकना पड़ता था और हर बार इस काम को बिना उँगलियों का दो-चार बूंद रक्त-दान किये मैं न कर पाता था। एक दूसरी फ्रेंच लड़की ने मुझे मोज़े रफू करने की विधि बताई थी। इंग्लैण्ड में पहुँचते ही मार्जरी और नैस्टर ने मुझे कितनी ही जरूरी बातें बताई-सिखाई थी, उनको गुरु न मानना कृतघ्नता होगी। पंटिंग-कैम नदी में नाव चलाना–मुझे एक अंग्रेज़ लड़के ने सिखाया था। टाइपिंग सीखी ही थी, लौटने के पहले डांसिंग के भी दो-चार क्लासों में गया था। शोध से सम्बद्ध मेरे दो निदेशक थे ही, फिर केम्ब्रिज के बहुत-से व्याख्यानों से मैंने कितना ज्ञान संचित किया। इन सब वक्ताओं को अपना गुरु मानूँमानना तो चाहिए-तो दत्तात्रेय, शायद, मेरे गुरुओं की संख्या पर मुझसे ईर्ष्या करेंगे।
साढ़े तीन पौण्ड प्रति सप्ताह की बचत पर मैं बहुत प्रसन्न हुआ, बहुत पछताया भी। बावा से मेरी भेंट पहले क्यों न हुई!
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