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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


पर केम्ब्रिज में बावा के भी एक गुरु थे, रूपचन्द साहनी। उनका रहने-खाने का खर्च केवल ढाई पौण्ड प्रति सप्ताह आता था। उन्होंने एक ऐसी डिग खोज ली थी, जहाँ सेल्फ सर्विस थी। कमरे का किराया एक पौण्ड प्रति सप्ताह था-कमरे की सफाई और बिस्तर लगाने का काम खुद करना पड़ता था। वे अपना सुबह का नाश्ता भी खुद बनाते, रात का खाना भी, लंच तो हल्का जहाँ लोग काम करते हैं, वहीं ले लेते हैं। उन्होंने साइंस के किसी विषय पर पी-एच०डी०. की, और करते ही उन्हें अमरीका की किसी युनिवर्सिटी में बड़ी अच्छी जगह मिल गयी। किफायतशारी के उनके पास अचूक नुस्खे थे। कान्वोकेशन में डिग्री लेने के लिए केम्ब्रिज में काला सूट और काला जूता पहनना पड़ता है। डॉ० साहनी के पास जूता ब्राउन था। जूते इंग्लैण्ड में बहुत महँगे मिलते थे। साहनी ने एक डिब्बी काले पालिश की खरीदी और रात में कई बार जूते पर पालिश कर-करके सुबह तक उसे काला कर दिया।

बावा बाद को एक कमरा खाली होने पर उसी डिग में चले गये।

जब साहनी ने अमरीका के लिए प्रस्थान किया तो बावा ने उनका कमरा मुझे दिला दिया। बावा के और मेरे कमरे तीसरी मंजिल पर थे, साथ मिले। साथ रहने से हम एक-दूसरे के बहुत निकट आये। फिर तो हमने एक ही 'रसोई' कर ली। सुबह दोनों के लिए नाश्ता मैं तैयार करता, शाम को दोनों के लिए खाना बावा बनाते। इससे हमारे खर्च में और भी कमी आयी। औसतन दो-दो पौण्ड से अधिक प्रति सप्ताह हमारे खर्च न आते!

पाँच पौण्ड प्रति सप्ताह की बचत!

मेरे लिए तो यह बहुत बड़ा वरदान सिद्ध हुई।

मेरे शोध का दो-तिहाई काम हो चुका था। केवल ईट्स-दर्शन पर मुझे जो कहना था, उस पर मैं समुचित सामग्री न एकत्र कर सका था। लन्दन की थियोसोफिकल सोसायटी से जो सामग्री मिल सकती थी. वह तो मैं वहाँ कछ रोज़ रहकर देख-परख आया। वह मेरे बड़े काम की थी, पर उससे अधिक महत्त्वपूर्ण सामग्री डबलिन में थी, विशेषकर श्रीमती ईट्स के पास।

मैंने आयरलैण्ड की यात्रा करने का निश्चय किया।

इस बीच घर पर-इलाहाबाद में एक बड़ी विषम परिस्थिति उठ खड़ी हुई, और मुझे लगा कि अब तो शायद आयरलैण्ड न जाकर मुझे भारत ही लौट जाना पड़ेगा। मैंने किस बुरी साइत में विदेश के लिए प्रस्थान किया था!

तेजी घर-गिरिस्ती और बच्चों की देख-रेख के लिए सर्व समर्थ है, यह मानते हए भी. चलते समय इस बात से मैं अतिरिक्त आश्वस्त था कि यदा-कदा मर्द की आड़ को पूरा करने के लिए राजन वहाँ हैं। उनकी कानून की अन्तिम परीक्षा होने वाली थी, पर वकालत की ट्रेनिंग के लिए फिर भी लगभग एक साल उनको इलाहाबाद में ही रहना था, और तेजी ने भी जब-तब अपने नारी-स्वभाव की भीरुता में राजन की उपस्थिति से कुछ बल-संबल ग्रहण किया था।

लेकिन अपनी ट्रेनिंग समाप्त करने के बाद राजन को अपनी प्रैक्टिस आरम्भ करने के लिए अपने घर बाँदा जाना था, जहाँ उनके वृद्ध पिता अकेले रहते थे।

मेरे विदेश चले जाते ही, अपने अन्दर सामर्थ्य-साहस की कमी की बात तेजी ने अपने पत्रों में बहुत बार लिखी थी, पर वास्तव में अपने अकेले, असुरक्षित और असहाय होने की अनुभूति उन्हें राजन के बाँदा चले जाने के बाद हुई। हमने संस्कारों से अपनी नारी को कितना पुरुष-निर्भरा बना दिया है!

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