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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


नगर में अगर हमारी घनिष्ठता किसी से न थी तो हमारी शत्रुता भी किसी से न थी। अगर मुझे इसकी आशा नहीं थी कि किसी मुसीबत में कोई हमारी मदद करेगा तो इसका भय भी नहीं था कि कोई अकारण हमारे निरीह परिवार को नुकसान पहुँचायेगा।

फिर मेरे तो लड़कपन और यौवन के कई वर्ष गली-मुहल्लों में बीते थे। गली-मुहल्ले के जीवन की कुछ खराबियाँ हैं तो कुछ खूबियाँ भी हैं। वहाँ आपके निजी जीवन में ताक-झाँक तो की जायेगी, पर साथ ही अगर आपका परिवार किसी ऐसी स्थिति में है, जैसी स्थिति में दुर्भाग्यवश मेरा परिवार था, तो उसकी मान-मर्यादा की रक्षा का दायित्व सारा मुहल्ला अपना समुझेगा। मैं भूल गया था कि अब मैं सिविल लाइन में रहता हूँ, जहाँ आपके यहाँ कुछ अनहोनी हो जाय तो उसका पता आपके पड़ोसी को अखबारों से लगता है। जहाँ आस-पड़ोस के हस्तक्षेप की कोई आशंका न हो, वहाँ कोई सिरफिरा किसी की नाजुक हालत का नाजायज़ फायदा उठाने की बात सोचे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ‘सिविल' लाइन ने 'अनसिविल' नहीं तो कैसी नकारात्मक शालीनता विकसित की है!

तेजी ने अपनी एकाकी और अरक्षित स्थिति में-एकाकी नारी तो सीता के समय से अपने को अरक्षित समझती आयी है-एक ऐसे ही सिरफिरे 'सज्जन' की काली छाया अपने निकट घनीभूत होती देखी।

'सज्जन' मेरे हमउम्र. पढे-लिखे प्रकाशन के व्यवसाय में थे। उनके पिता ने कहीं बाहर से आकर इलाहाबाद में प्रेस का काम शुरू किया था और उसमें बहुत सफल हुए थे। इलाहाबाद की मिट्टी में एक खसूसियत है-बाहर से आकर उस पर जमनेवालों के लिए वह बहुत अनुकूल पड़ती है। इलाहाबाद में जितने जानेमाने, नामी-गिरामी लोग हैं, उनमें से 99% आपको ऐसे मिलेंगे जो बाहर से आकर इलाहाबाद में बस गये, खासकर उसकी सिविल लाइन में-स्यूडो इलाहाबादी। और हाँ, एक बात और गौर करने के काबिल है कि इलाहाबाद का पौधा तभी पलुहाता है, जब वह इलाहाबाद छोड़ दे।

छोटे शहर में भी बिना किसी समान रुचि के लोगों का आपस में मिलना-जुलना कम ही हो पाता है। लेखक-प्रकाशक का सम्पर्क कभी-न-कभी हो ही जाना था। 'सज्जन' से किसी पार्टी में परिचय हुआ था और कई वर्षों तक हमारी निकटता उससे आगे नहीं बढ़ी, जिसे अंग्रेज़ी में सोशल फ्रेंडशिप कहते हैं, यानी कहीं हम मिल जाते तो सलाम-दुआ हो जाती या कभी-कभार एक-दूसरे के घर हो आते।

प्रकाशन के अतिरिक्त उन्हें बागबानी का शौक था, विशेषकर गुलाब उगाने का, जिसमें एक समय तेजी की भी बड़ी रुचि थी, और उसके कारण हमारा एकदूसरे के यहाँ आना-जाना बढ़ा था।

मेरे विदेश जाने के बाद वे तेजी के पास अधिक आने लगे-बहाना, उनके गुलाब के बाग की देख-रेख।

पहले जब आते, अपनी पत्नी को साथ लाते।
बाद को यदा-कदा अकेले भी आने लगे।
फिर तो जब आते, पत्नी को कभी साथ न लाते।
राजन जब तक घर पर थे. उनके व्यवहार में एक नागरिक का
शिष्टाचार दृष्टिगोचर होता।

राजन के जाने के बाद, धीरे-धीरे उनकी चेष्टाओं में परिवर्तन आने लगा।

तेजी को उनके इरादों को भाँपते देर न लगी।

और एक दिन उन्होंने अपना बाहरी भिखारी भेस उतारकर अपने को अपने असली राक्षसी रूप में प्रकट कर दिया।

कामातुराणां न भयं न लज्जा

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