जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
ट्रेन से लिवरपूल पहुँचकर मैंने स्टीमर पकड़ा। स्टीमर बहुत बड़ा नहीं थाकुल यात्री डेढ़-दो सौ के लगभग होंगे। अगस्त का महीना था, न बहुत ठण्डा, न बहुत गरम, प्राय: लोग खुली डेक पर पड़ी बेंचों और कुर्सियों पर बैठकर यात्रा कर रहे थे। स्टीमर पर आइरिश बियर बहुत सस्ती मिलती है, और 99% यात्रियों ने तो बोतलों पर बोतलें चढ़ाई होंगी। बीच रास्ते में हवाएँ तेज़ हो गयीं और हमारा स्टीमर हिचकोले खाने लगा। छोटे स्टीमर वैसे भी ज्यादा हिलते-डुलते हैं। मैंने सुन रखा था कि अंग्रेज़ समुद्र-यात्रा की अभ्यस्त कौम है-द्वीप में रहने वाले जो हुए। पर मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि आधे से अधिक मुसाफिरों को सी-सिकनेस हई और बहुतों ने उलटियाँ की। समुद्र में स्टीमर से यह मेरी पहली यात्रा थी, फिर भी दूसरों को उल्टी करते देखकर भी मुझे मतली तक न आयी।
उठ पड़ा तूफान, देखो,
मैं नहीं हैरान, देखो,
एक झंझावात भीषण मैं हृदय में से चुका हूँ।
मूल्य अब मैं दे चुका हूँ।
(निशा निमन्त्रण)
आयरलैण्ड की यात्रा की छाप मेरे मानस-पटल पर जितनी स्पष्ट, जितनी गहरी है, उतनी कम जगहों की है। वहाँ मैंने जो कुछ भी देखा-सुना, वह अपने पूरे विस्तार में मेरी स्मृति में अंकित है और आज चौबीस वर्षों के बाद भी धुंधला नहीं पड़ा। मैं सोचता हूँ, ऐसा क्यों हुआ होगा? कारण शायद यह है कि मैं एक बड़े दु:ख की अनुभूति के बाद आयरलैण्ड गया था। अज्ञेय की एक पंक्ति है :
दुःख सब को माँजता है।
यह सच है। दु:ख मनुष्य के मन को माँजकर दर्पण-स्वच्छ कर देता है। फिर जो भी उसके समक्ष आता है, वह उसमें अविकल, अविरल प्रतिबिम्बित होता है। मुझे भय हो रहा है-कहीं मैं अपनी आयरी-यात्रा को अनुपात से अधिक स्थान न दे दूँ।
बन्दरगाह से डबलिन सात मील दूर है, बन्दरगाह डुनलियरी कहलाता है। शहर को बस या टैक्सी से जाते हैं। क्षितिज से निरभ्र आकाश में उठते हुए सूर्य के प्रकाश में डबलिन को देखकर मुझे ऐसा लगा जैसे मैं आँखों पर हरा चश्मा लगाकर वहाँ उतर पड़ा हूँ-चारों ओर हरियाली ही हरियाली। हरी घास-भरी भूमि, हरे पेड़-पौधों की सघनता की प्रत्याशा तो मैं करता हुआ आया ही था- इसी कारण तो आयरलैण्ड को 'एमरल्ड आइलैण्ड' कहते हैं- मरकत द्वीप। पर मैं यह नहीं जानता था कि यहाँ मनुष्य ने प्रकृति की हरियाली से होड़ लगाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी-यहाँ ट्रेन के डिब्बे हरे हैं, ट्रामें, बसें हरी हैं, लेटर-बाक्स हरे हैं, मार्ग-निर्देशक स्थान हरे हैं. पलिस-जिन्हें आयरलैण्ड में सिविक गार्डस' कहते हैं और फौजियों की पोशाकें हरी हैं, लाल ईंट के बने मकानों के दरवाज़े-खिड़कियाँ हरी रँगी हैं, वैसे ही जगह-ब-जगह रेलिंगें हरी हैं, करेंसी नोट भी हरे रंग के हैं। पर इतनी हरियाली का शौकीन यहाँ का बाशिन्दा स्वयं हरा नहीं है-'हरा' इस अर्थ में कि कच्चा! वह पकी, सिझी, मेच्योर कौम का है। उसके पास अपना इतिहास है, अपनी परम्परा है, अपनी संस्कृति है और इन पर उसे गर्व है। 'हरा' खुश व खुर्रम के अर्थ में लें-'राम भरोसे जो रहै जंगल में हरियायँ'- तो भी आयरवासी 'हरा' नहीं। इसके लिए एक तो उसका रोमन-कैथलिक धर्म उत्तरदायी है, जिसमें हर ईसाई आदम की आदि अपराध-भावना से दबा रहता है; दूसरे, उसके देश पर हुए आक्रमणों की श्रृंखला, और सात सौ वर्षों की दासता और उससे त्राण पाने का उनका अनवरत संघर्ष, जिसमंर भोगी-झेली यातनाएँ आयरी जनता को ऐसी ही याद हैं, जैसे वे कल की घटनाएँ हों। अच्छी स्मृति कितना बड़ा अभिशाप है, इसे मुझसे अधिक कौन जानेगा! कभी-कभी मैं सोचा करता हूँ कि पूर्व जन्म में मैं आइरिशमैन रहा हूँगा। उसके चेहरे पर सस्ती हँसी नहीं, उसकी आँखों में मूल्य देकर सँजोई गम्भीरता है, संजीदगी है,
आये थे हँसते-खेलते मैखाने में 'फ़िराक'
जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गये।
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