जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
ईट्स की एक-एक चीज़ के साथ जो स्मृतियाँ जुड़ी थीं, उन्हें वे माला की तरह फेरती थीं। एक दिन याद है, उन्होंने मुझे वह प्रशस्ति-पत्र और तमगा दिखाया था, जो उन्हें नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने पर दिया गया था। उस अवसर पर ईट्स ने जो व्याख्यान दिया था, बड़ा ही मार्मिक है। सोने के तमगे के एक ओर ईट्स का पूरा नाम खुदा है, दूसरी ओर कविता की देवी खड़ी है और एक नवयुवक उसके चरणों में बैठा वीणा बजा रहा है। ईट्स ने उसे देखकर कहा था, 'एक दिन मैं जवान था और मेरी कविता निर्बल-जर्जर थी, आज मैं बूढ़ा हो गया हूँ और मेरी कविता जवान हो गयी है' विरोधों को एक-दसरे के समक्ष लाकर उनके प्रभाव को बढ़ाना ईट्स की कला की विशेषता है, जो ईट्स के कथनानुसार, उन्होंने कब्बाला के प्रतीकों से सीखी थी। मैंने ईट्स के भावों को कभी अपने शब्दों में रखा था-
है कहा किसी ने, जब शायर बूढ़ा होता,
उसकी कविता तब नौजवान हो जाती है।
शायद सरोजिनी नायडू पर लिखी मेरी कविता में ये पंक्तियाँ हैं।
एक दिन ईट्स के प्रतीकों पर हमारी बात हो रही थी। वे प्रायः दो तरह के हैं-एक, जो सीधे अपने लक्ष्य पर जाते हैं और दूसरे, जो गोल-गोल घूमते हैं, चक्कर काटते हैं। सीधे जाने वाले दार्शनिक दृष्टि के प्रतीक हैं, गोल-गोल जाने वाले काव्यात्मक दृष्टि के। ईट्स कवि और दार्शनिक दोनों होना चाहते थे, दोनों के संघर्ष में, तनाव में सदा रहे, और न जाने कितने प्रतीकों से उन्होंने इसे व्यक्त किया :
कवि का पंथ अनंत सर्प-सा
जो है मुख में पूँछ दबाये,
और मनीषी तीर सरीखी
सीधी अपनी लीक बनाये
काव्य और दर्शन के द्योतक सर्प और तीर भी कब्बाला के आदि प्रतीक हैं।
श्रीमती ईट्स उठी और एक छोटी-सी डिबिया लायी। उसमें एक सोने की अंगूठी थी। अंगूठी के ऊपर बाज़ और तितली की शक्ल बनी हुई थी-बाज़ सीधे झपटने वाला, तितली गोल-गोल घूमने वाली। यह अंगूठी ईट्स ने खुद डिज़ाइन की थी और अपनी छिगुनी में हमेशा पहने रहते थे-जैसे उन्हें याद दिलाते रहने को कि वे बाज़ भी हैं, तितली भी, दार्शनिक भी, कवि भी। मिसेज़ ईट्स ने मेरी छिगुनी पकड़ी और वह अंगूठी उस पर खिसका दी, जब वह ठीक फिट हो गयी तो गौर से उसकी ओर देखकर बड़े स्मृति-करुण स्वर में बोलीं, 'विली की उँगली ठीक तुम्हारी-जैसी थी।' मैं किन भावों में डूब गया, मैं नहीं कह सकता; जैसे उस अंगूठी की किसी जादुई शक्ति ने मुझे छू दिया।
एक शाम को वे मुझे एबी थियेटर में एक नाटक दिखाने ले गयीं। एबी थियेटर को राष्ट्रीय रंगमंच के रूप में स्थापित करने वालों में ईट्स का प्रमुख योगदान था। कहते हैं, पहले यह मुर्दाघर था-शायद ईट्स को लगा कि यहीं से आयर का भूत-अतीत बोल सकता है। ईट्स ऐसे प्रतीकात्मक काम बहुत करते थे। एक बार जब उनका दार्शनिक उनमें प्रखर था, तब थूर बलाइली में अपने रहने को उन्होंने एक पुराना कासिल खरीद लिया था, जिसमें एक टावर था, जिसकी सबसे ऊँची मंजिल पर उन्होंने अपनी स्टडी बनाई थी–टावर, सीधी ऊर्ध्वगामी दृष्टि का प्रतीक। उस शाम एबी थियेटर में जो नाटक खेला गया था, गेलिक भाषा में था। गेलिक, ध्वनि से मुझे सशक्त भाषा लगी। अंग्रेज़ों ने व्यर्थ ही उसे नेस्त-नाबूद करने का प्रयत्न किया, वह मारी नहीं जा सकती। काश, आयरी लोगों ने गेलिक की अपनी लिपि का भी आग्रह न किया होता। तब योरोपीय भाषाओं के साथ उसका मेल-जोल जल्दी बढ़ता। दूसरे की भाषा के सम्बन्ध में मैं कुछ कहने का अधिकारी नहीं, शायद भाषा और लिपि का कोई अनिवार्य सम्बन्ध हो। वर्तनी और उच्चारण के अन्तर में गेलिक अंग्रेज़ी के भी कान काटती है।
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