जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
अन्त में वे सहसा गम्भीर हो गयीं-
'ज़िन्दगी-भर उसका एक हिस्सा अपने ही दूसरे हिस्से से लड़ता रहा। उसका जीवन एक लम्बा तनाव था। वह बहुत दुखी आदमी था।...'
आरलैण्ड अशर ने ठीक ही कहा था कि पता नहीं कब आयरीजन मज़ाक करते-करते गम्भीर हो जायें।
यह बहुत बड़ा सत्य है कि ईट्स का जीवन तनावों का जीवन था। मैं यह भी मानता हूँ कि कुछ तनाव उनके जीवन में अपने आप आ गये थे, पर कुछ उनके स्वनिर्मित भी थे। किसी दर्जे पर, अपनी अनुभूति से या साहित्य और इतिहास के किसी उदाहरण से उन्हें यह स्पष्ट हो गया था कि ज़िन्दादिल तो तनावों में ही जीता है,
मुर्दादिल खाक जिया करते हैं।
ईट्स बड़े ही जीवट के आदमी होंगे कि प्रकृति-नियति के विहित तनावों के बावजूद उन्होंने कुछ और भी अपने पर आरोपित कर लिये थे। और मैं समझता हूँ कि मैं बहुत गलत नहीं हूँ, अगर मैं ऐसा कहूँ कि इन परस्पर विरोधी तनावों ने कभी-कभी एक-दूसरे के प्रभाव को नकारकर ईट्स को एक सन्तुलन की अनुभूति भी कराई होगी, जिसे पहुँचे हुए योगी ही प्राप्त करते हैं-समत्वं योग उच्यते। अन्यथा उनसे ऐसी पंक्तियाँ न निकलती :
एक दृष्टि निरपेक्ष
डालता हूँ जीवन पर और मरण पर
औ' घोड़े को एड़ लगाता
विदा विधाता*
* उनके Epitaph (एपीटाफ-मृत्युलेख) का मेरा अनुवाद।
ब्लनेड सालकेल्ड ने मुझे अपनी कविताओं का एक संग्रह दिया था-The Engine is left running** (दि एनजिन इज़ लेफ्ट रनिंग)-नाम का।
**The Gayfield Press, 1937, Dublin
उसकी एक पंक्ति मुझे बहुत अच्छी लगी थी, जिसका उपयोग मैंने अपनी एक कविता में किया है-सार्च के नोवेल पुरस्कार ठुकरा देने पर' आइरिश कवि की लिखी यह पंक्ति स्मृति में कौंध जाती-
The Kings are never more royal
Than when abdicating.
राजसी लगता अधिकतम
जबकि राजा
राजसिंहासन स्वयं ही त्याग देता।
कुछ लोगों ने समझा था कि ये पंक्तियाँ ईट्स की हैं। इन पंक्तियों का सत्य भारत-भूमि पर जितनी बार मूर्तिमान हुआ है, उतनी बार संसार में शायद और कहीं नहीं।
डबलिन में जिन लोगों से मिलने के लिए हेन ने मुझे पत्र दिये थे, वे सभी ईट्स के प्रेमी और प्रशंसक नहीं थे, कुछ उनके कटु आलोचक और निन्दक भी थे। कभी-कभी मैं सोचता था कि हेन ने क्यों चाहा होगा कि मैं उनसे मिलूँ, पर कभीकभी निन्दक कुछ ऐसे सत्य प्रकट करते हैं जो प्रशंसक दबा जाते हैं। कबीर ने निन्दक को नेड़े रखने की सलाह शायद इसीसे दी होगी। ईट्स के पथ में आयरलैण्ड ने सदा फूल ही नहीं बिछाये थे, उनका विरोध भी किया गया था। वे आस्था से प्रोटेस्टेन्ट नहीं थे, पर प्रोटेस्टेन्ट परिवार में जन्मे तो थे। आयरलैण्ड का राष्ट्रीय आन्दोलन मुख्यतया कैथलिक आन्दोलन था। कभी-कभी, इसी कारण ईट्स के राष्ट्रप्रेम को भी सन्देह की दृष्टि से देखा गया था। उनके कतिपय नाटकों को धर्मविरोधी अथवा राष्ट्रविरोधी घोषित किया गया था, और जब वे खेले गये थे, तब उन पर धरना भी लगा था। नयी पीढ़ी के लोग अतार्किकता के प्रति उनके झुकाव को नापसन्द ही नहीं करते थे, उसे घृणा की दृष्टि से देखते थे। ऐसे लोगों में स्वयं ईट्स के सुपुत्र थे। उनका ख्याल था कि आयरलैण्ड के एक ऐसे विश्वविख्यात व्यक्ति का ऐसी तर्कहीन, दकियानूसी बातों में रुचि लेना आयरलैण्ड की मनीषा को लांछित करने के साथ, उसकी बौद्धिकता को निम्नस्तरीय सिद्ध करता है। जब उन्हें मालूम हुआ कि मैं ईट्स की 'ओकल्टिज्म' पर शोध कर रहा हूँ, तब उन्होंने मुझसे मिलने से ही इनकार कर दिया-'आपको मुझसे कोई सहायता नहीं मिलेगी, मुझसे मिलकर आप अपना समय ही नष्ट करेंगे।' वे तो शायद समझते होंगे कि इस विषय में उलझकर मैंने अपने जीवन के दो-ढाई वर्ष नष्ट ही किये। आज चौबीस वर्षों बाद भी मैं अपने उन दो-ढाई वर्षों को अपने जीवन के सबसे अधिक सार्थक वर्षों में गिनता हूँ, अन्यथा उनकी स्मृति को संजोए रखने और उन्हें इस लेखन के द्वारा एक बार फिर, शायद अधिक सघनता से, जीने के अर्थ क्या हैं!
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