जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
कश्मीर पहली बार मैं पठानकोट से जम्मू, जम्मू से श्रीनगर बस से गया था। मुझे याद है, पीर पंजाल की सीढ़ीदार सड़कों को पार कर जब आखिरी टनल में होकर हमारी बस बाहर निकली थी तो कश्मीर घाटी का अफाट सौन्दर्य सहसा हमारी आँखों के सामने फट पड़ा था। किलार्नी देखकर मुझे कुछ ऐसी ही अनुभूति हुई। कुछ क्यों? पूरी क्यों नहीं? इसलिए कि किलानी के नेत्रों के समक्ष आने के साथ वह अचानकता का तत्त्व न था जो कश्मीर में था। किला के निकट पहुँचते रास्ते की मनोज्ञता से जैसे हम उसकी मनोरमता के लिए तैयार होते गये थे।
पहाड़ियाँ, नदी, झील, झरना, बन, उद्यान, नहरें, पुराने खण्डर, नये निर्माण, इतिहास. विज्ञान, प्रकति. मानवी कौशल-सबका कैसा यथास्थान समायोजन, सम्मिलन यहाँ किया गया था!
इस सारे सौन्दर्य को हमने बस से देखा था, बोट से देखा था, घोड़े की पीठ से, और 'ऊँटाँगे' से। 'ऊँटाँगा' आपने नहीं समझा होगा। आयरलैण्ड में एक तरह का टाँगा होता है जो ऊँट जितना ऊँचा होता है, इसको 'जांटिंग कार' कहते हैं। इसको 'ऊँटाँगा' नाम मैंने दिया है। इसके पुश्तैनी पेशेवर हाँकने वाले अपनी व्यंग्य-विनोदी बतकही के लिए भी विख्यात हैं।
किलानी में आँखों को ही नहीं खुला रहना होता, कानों को भी। कितनी तरह की ध्वनियाँ आपको सुनाई पड़ती हैं, पशु-पक्षियों की, नदी-झरनों की, तरह-तरह के वृक्षों से गुज़रती हवाओं की और चट्टानों की। आश्चर्य न करें, किलार्नी की चट्टानें बोलती हैं। पोनीमैन-घोड़ों की रास पकड़कर चलने वाले-तरह-तरह के बिगुल और गाँवों में बनी सिंगी या हार्न रखते हैं। जब वे उन्हें बजाते हैं तो विभिन्न चट्टानों से भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रतिध्वनियाँ निकलती हैं-कोई मनोहारी, कोई भयावनी भी। कोई तो इतनी भयावनी कि कोई अपरिचित लड़की भी यदि आपके पास खड़ी हो तो आपसे चिपक जायेगी।
प्रकृति का सौन्दर्य मौसम के साथ उभरता, दबता, बदलता है।
अगर किलानी पर बदली घिर आती?
अगर किलानी पर चाँदनी छा जाती?
उस सन्ध्या को किलार्नी पर पूरा चाँद निकल आया था।
चाँद से ताजमहल का सौन्दर्य ही नहीं निखरता, किलार्नी का भी।
सफेदी पर सफेदी एक चीज़ है।
रंगीनी पर सफेदी दूसरी ही चीज़ है।
मैंने चाँदनी में ताजमहल भी देखा है, किलार्नी भी देखी है। सौन्दर्य की सौन्दर्य से तुलना नहीं करनी चाहिए। इस समय किलानी के सौन्दर्य को पूरी तरह भोगने के लिए ताजमहल को याद भी न करना चाहिए।
नैनसी अधिक सौभाग्यवान है। उसने ताज नहीं देखा है।
वह किलार्नी के ही सौन्दर्य में डूब गयी है।
टूरिस्ट बसों से हार्न बजने लगे हैं। वापस जाने के लिए बुलावा है। मुसाफिरों के कदम सब ओर से बसों की ओर बढ़ने लगे हैं।
नैनसी को हिलाता हूँ-लौटने का समय हो गया है।
नैनसी धीमे से कहती है-
हम टूरिस्ट ट्रेन से आये ज़रूर थे, हम टूरिस्ट ट्रेन से वापस जाने के लिए बाध्य तो नहीं हैं ? कि हैं?...
वह रात हमने चाँदनी और किलार्नी के साथ बिताई।
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