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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


और बहुत-से लोग रुक गये थे।
फिर हम सब साथ मिलकर एक फूलों के झुरमुट के पास बैठे।
 
सबने अपने-अपने देश के गीत गाये-सुनाये या मनोरंजक 'एनेक्डोट्स'।

सुबह की गाड़ी से हम डबलिन लौटे।

खिड़की से ठण्डी-ठण्डी हवा के झोंके आ रहे थे और मैं अधसोया-अधजागा सा आड़ लगाकर बैठा था, बिल्कुल विश्रांत, और मेरे कानों में एक गीत गूंजने लगा था जैसे कोई दूसरा गा रहा हो और मैं सुन रहा हूँ।

डिग में आकर मैंने बड़े सहज भाव से वह गीत लिख डाला-देर कर दूं तो शायद वह मेरी स्मृति से उतर न जाये।

वह गीत मैं पूरा यहाँ देना चाहता हूँ। पंक्तियों का संकेत कर, और वह गीत आप इसी वक्त अपने निकट न पा सकें तो आपका सारा मज़ा किरकिरा हो जायेगा, और इस गीत पर जो मैं कहना चाहता हूँ, वह भी आपके पल्ले न पड़ेगा।

तुम्हारे नील झील-से नैन,
नीर-निर्झर-से लहरे केश।

तुम्हारे तन का रेखाकार
वही कमनीय कलामय हाथ
कि जिसने रुचिर तुम्हारा देश
रचा गिरि-ताल-माल के साथ

करों में लतरों का लचकाव,
करतलों में फूलों का वास,
तुम्हारे नील झील-से नैन,
नीर-निर्झर-से लहरे केश।

उधर झुकती अरुनारी साँझ,
इधर उठता पूनों का चाँद,
सरों, श्रृंगों, झरनों पर फूट
पड़ा है किरनों का उन्माद,

तुम्हें अपनी बाँहों में देख

नहीं कर पाता मैं अनमान,
प्रकृति में तुम बिम्बित चहुँ ओर
कि तुम में बिम्बित प्रकृति अशेष।
तुम्हारे नील झील-से नैन
नीर-निर्झर-से लहरे केश।

जगत है पाने को बेताब
नारि के मन की गहरी थाह-
किये थी चिन्तित औ' बेचैन
मुझे भी कुछ दिन ऐसी चाह-

मगर उसके तन का भी भेद
सका है कोई अब तक जान।
मुझे है अद्भुत एक रहस्य
तुम्हारी हर मुद्रा, हर वेष।
तुम्हारे नील झील-से नैन,
नीर-निर्झर-से लहरे केश।

कहा मैंने, मुझको इस ओर
कहाँ फिर लाती है तकदीर,
कहाँ तुम आती हो उस ओर
जहाँ है गंग-यमुन का तीर,

विहंगम बोला, युग के बाद
भाग से मिलती है अभिलाष,
और...अब उचित यहीं दूं छोड़
कल्पना के ऊपर अवशेष।
तुम्हारे नील झील-से नैन,
नीर-निर्झर-से लहरे केश।

मुझे यह मिट्टी अपनी जान
किसी दिन कर लेगी लयमान,
तुम्हें भी कलि-कुसुमों के बीच
न कोई पायेगा पहचान,

मगर तब भी यह मेरा छन्द
कि जिसमें एक हुआ है अंग
तुम्हारा औ' मेरा अनुराग
रहेगा गाता मेरा देश।
तुम्हारे नील झील-से नैन
नीर-निर्झर-से लहरे केश।

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