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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


फिलहाल, अपने शोध-कार्य के सम्बन्ध में ही एक बड़ी समस्या मेरे सामने खड़ी हो गयी थी। शोध-कार्य तभी निर्बाध गति से आगे बढ़ता है, जब निर्देशक और शोधार्थी में ताल-मेल हो। हफ के और मेरे दृष्टिकोण में जो अन्तर था, उससे शुरू-शुरू में उन्हें भी कुछ बौद्धिक व्यायाम करना पड़ा होगा, मुझे अपनी ओर लाने को और मुझे भी कुछ दबना-हटना पड़ा होगा, उनके अनुरूप होने को। शोध के स्तर पर यह तो हो नहीं सकता कि मौलवी साहब कान पकड़कर जिधर चाहें शागिर्द को घुमा दें और न शागिर्द ही अपने कान को इतना मज़बूत समझ सकता है कि मौलवी साहब को जिधर चाहे, खींच ले जाये। लेकिन अगर निर्देशक और शोधार्थी में संघर्ष की स्थिति आये तो न तो वह शोभन होगी, न हितकर, निश्चय ही शोधार्थी के लिए, क्योंकि निर्देशक फिर भी शोधार्थी का बहुत कुछ बना-बिगाड़ सकता है, न्यायतः अथवा अन्यायतः।

बिना आपको तकनीकी विस्तार से खींचे, संक्षेप में समस्या को इस प्रकार रखना चाहँगा। ईटस के दर्शन-स्रोतों के सम्बन्ध में जो धारणा मेरी बन रही थी. उससे हेन की पूर्ण सहमति न थी और वे अधिकाधिक अकाट्य सबूतों की माँग करते रहते थे। आयरलैण्ड में मुझे जो सामग्री मिली थी, उसको देख-परखकर मैं अपनी धारणा में अधिक दृढ़ हो गया था। स्थिति अब और नाजुक इसलिए हो गयी थी कि कुछ कविताएँ जिनको मैं अपने समर्थन में प्रस्तुत करना चाहता.था, उन्हीं के सम्बन्ध में हेन कुछ दूसरी बातें अपनी पुस्तक में कह चुके थे। बिना उनको गलत साबित किये हुए मैं अपने तर्क में आगे नहीं बढ़ सकता था। मेरे सामने तरह-तरह के प्रश्न उठते थे, क्या मैं उनको गलत साबित करूँ? अगर मैं ऐसा करता हूँ तो क्या हेन मेरे तर्कों को स्वीकार करेंगे? अगर वे तर्क मानने ही पड़े तो क्या हेन इससे नाराज़ नहीं होंगे? उस नाराज़गी में क्या यह सम्भव नहीं कि वे मेरी थीसिस को ही रिजेक्ट कर दें। तब तो मेरा दो वर्ष में किया-कराया सारा काम ही चौपट हो जायेगा। मैं तो इस आशा में काम कर रहा था कि वे मेरी एम०लिट० की थीसिस को पी-एच० डी० की थीसिस की समता का समुझेंगे। क्या अपनी इस धृष्टता के बाद भी मैं ऐसी प्रत्याशा कर सकता हूँ? क्या मैं इन कविताओं का ज़िक्र लाये बगैर अपनी बात नहीं सिद्ध कर सकता? अगर नहीं, तो क्या मैं अपने तर्कों को स्वयं कमज़ोर नहीं बनाऊँगा? इन प्रश्नों की उधेड-बन में कई दिनों तक मैंने कछ काम नहीं किया। फिर मैंने प्रयोगात्मक रीति से अपना लेख लिख डाला। कई बार मैंने उसको इस दृष्टि से पढ़ा कि अगर हेन उसे पढ़ेंगे तो उनको कैसा लगेगा? उनकी प्रतिक्रिया क्या होगी? निर्देशन का दिन समीप आता जा रहा था और मैं अपने संकोच में डूब-उतरा रहा था। मैंने अपनी शैली को बार-बार माँजा, बातें बड़े संयत ढंग से कहीं, फतवेबाजी की कहीं बू तक न रखी, आक्रामकता उसमें कहीं भी न आने दी। साथ ही, जो बातें मुझे कहनी थीं, निश्चयात्मकता के साथ कहीं, असंदिग्धता के साथ।

हेन ने लेख मेरे सामने ही पढ़ा। मुझे देखकर आश्चर्य हुआ कि उन्होंने मेरे उस प्रबन्ध में कम-से-कम संशोधन सझाये। उनके सम्बन्ध में जो मैंने लिखा था. उस पर तो उन्होंने एक शब्द भी न कहा, वे लेख इस तरह पढ़ गये जैसे वे किसी तीसरे व्यक्ति के बारे में पढ़ रहे हों। उनकी इस निरपेक्षता से मैं बहुत दिनों आशंकित रहा। इससे तो अच्छा होता, वे मेरा विरोध करते, किसी अंश में सही, या मेरा लेख बिल्कुल रिजेक्ट कर देते। उस दर्जे पर मेरा ऐसा समझना मेरी अहम्मन्यता की हद ही होती कि जो मैंने कहा था, वह सवा सोलह आने ठीक था और उसमें एक शब्द भी जोड़ने-घटाने की आवश्यकता न थी।

दूसरा लेख, भूमिका वाला, मैंने दो सप्ताह के अन्तराल पर पूरा कर दिया और उसमें कोई विवादास्पद बात न थी।

पर तीसरे, उपसंहार वाले लेख ने फिर एक समस्या खड़ी कर दी।

संक्षेप में और अ-तकनीकी ढंग से, उसे मैं इस प्रकार रखना चाहूँगा।

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