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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


ईट्स के ओकल्ट-दर्शन को महत्त्व न दूँ तो हेन मुझसे खुश न हों।

ईट्स में ईसाई-परम्परा को महत्त्व न दूँ तो युनिवर्सिटी मुझसे खुश न हो।

एक तरफ खाई, एक तरफ खंदक।
मैंने अपने को खुश करने को महत्त्व दिया।

इसके अलावा कोई दूसरा रास्ता न था, उपसंहार को मेरी सारी थीसिस का प्रतिफलन होना था। कई बार मैंने पिछले अध्यायों को पढ़ा, गो मैं उन्हें अन्तिम रूप न दे पाया था। कई ड्राफ्ट तैयार किये, फाड़े, फिर लिखे, फिर-फिर उन्हें संक्षिप्त किया, एक महीने के श्रम के बाद मुझे लगा कि मैं अपने को खुश कर सका, यानी लेख से मैं सन्तुष्ट हुआ।

हेन ने मेरे लेख को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया।

अब मेरी थीसिस का कोई भाग ऐसा न था, जिसको हफ या हेन ने न देख लिया हो। उनके सुझावों के प्रकाश में उसे सुधारना-सँवारना अभी बाकी था। हेन ने कहा था कि टाइपिंग के लिए मास्टर कॉपी बनाने में प्रायः छह महीने लग जाते हैं। सारा अक्टूबर 'उपसंहार' वाले लेख ने ही ले लिया था, अब मार्च के पहले मेरे पास केवल पाँच महीने थे, फिर भी मुझे विश्वास था कि मैं छह महीने का काम पाँच महीने में कर लूँगा।

इस दर्जे पर मुझे निर्णय लेना था कि मार्च के बाद भारत लौटकर अपनी थीसिस व हाँ  से प्रस्तुत करूँगा या दो-ढाई महीने और अपना प्रवास बढ़ाकर अप्रैल में यहीं से।

कई बातें थीं जो मुझे प्रेरित करती थीं, विवश करती थीं कि मैं मार्च के अन्त में स्वदेश लौट जाऊँ।

पिछले महीनों में जो तूफान मेरे घर पर उठ खड़ा हुआ था, उसका जोर टूट तो गया था, पर वह पूरी तरह शान्त नहीं हुआ था।

राक्षस जल्दी अपनी पराजय स्वीकार नहीं करता।

रावण को निश्चय हो गया था कि सीता उसका कहा न मानेंगी, फिर भी वह उन्हें बहुविधि त्रास देने से बाज़ नहीं आने वाला था।

इलाहाबादी रावण की निसिचरियाँ या निसिचर थे-वे कलमी-कायर जो तेजी को, जगदीश राजन को और यहाँ तक कि मुझे केम्ब्रिज में धमकी-भरे, अश्लील और वीभत्स गुमनाम पत्र भेजते थे।

मैं बड़े खेद के साथ लिखता हूँ, पर अपने और कई लोगों के अनुभव के बल पर कि गुमनाम पत्र लिखना हमारे इलाहाबादी नागरिकों की खास बीमारी है।

इसकी छूत का शिकार न होने का एकमात्र इलाज यह है कि ऐसे पत्रों को पढ़कर या बिना पढ़े-अगर ऊपर-नीचे पता-नाम नहीं है तो-आग में झोंक दिया जाये और फिर न उसका जिक्र किसी और से किया जाये न अपने से, यानी उसके बारे में फिर सोचा ही न जाये। जिस कायर में इतना भी दम नहीं कि अपने बाप के दिये हए नाम को बताने की हिम्मत कर सके, उसकी बात से भयभीत या विचलित होना या तो अपने आप को उससे बड़ा कायर सिद्ध करना है, या अत्यन्त दुर्बल और लिजलिजी मनोशिराओं का। पर मुझे और खेद के साथ लिखना पड़ता है कि ऐसे पत्रों से मैंने बहुतों को पस्त होते देखा है।

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