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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


अगर समय पर मुझे इसका पता लगता तो मुझे अपने शब्दों की सौगन्ध खाकर कहना पड़ता,

काम ऐसा कौन जिस को
छोड़ मैं सकता नहीं हूँ
कौन ऐसा, मुँह कि जिससे
मोड़ मैं सकता नहीं हूँ
श्रृंखला वह कौन जिसको
तोड़ मैं सकता नहीं हूँ

चाँद-सूरज भी पकड़
मुझको नहीं बिठला सकेंगे।

मैं बुझाता हूँ पगों से
आज अंतर के अंगारे,
और वे सपने कि जिनको
कवि करों ने थे सँवारे,
आज उनकी लाश पर मैं

पाँव धरता आ रहा हूँ...
खींचती किन मौन दग के जल-कणों से
जो कि रुक सकता नहीं मैं...

तेजी की बात मानकर मैंने हेन से कह दिया था कि मैं ढाई महीने और केम्ब्रिज में रुककर थीसिस यहीं प्रस्तुत करूँगा और वायवा' देने के पश्चात् डिग्री कमेटी के निर्णय की प्रतीक्षा करूँगा।

खर्चे का हिसाब लगाया तो मैंने पाया, कॉलेज की फीस और थीसिस प्रस्तुतीकरण से सम्बद्ध और खर्चे तो मैं उठा लूँगा पर छह महीने रहने-खाने का खर्च मेरे पास न होगा और न वापस जाने का क्या छह महीने चिड़िया की तरह पेड़ों पर रहना और पंखों पर उड़कर घर पहुँचना सम्भव होगा?

मैं किस बल पर तेजी से खर्च भेजने को कहूँगा?
क्या यहाँ कुछ अर्जित करना सम्भव होगा?
क्या यहाँ कुछ काम मिल सकेगा?
काम कर भी क्या सकता हूँ सिवा ट्यूशनगिरी के?
अंग्रेज़ी कौन यहाँ पढ़ना चाहेगा हिन्दुस्तानी से?
हिन्दी पढ़ने वाला कोई मिल सकता है?
जिन खोजा तिन पाइयाँ...

केम्ब्रिज में बस्ती से दूर एक साहित्य-कला प्रेमी दम्पति रहते थे-कोट्स। शायद उनके पास कुछ अच्छी पुश्तैनी सम्पत्ति थी। बड़ा-सा एकमंजिला मकान था, जिसमें पति-पत्नी रहते थे, बाल-बच्चा कोई नहीं। रोटी कमाने का, जहाँ तक मुझे मालूम है, वे कोई काम नहीं करते थे। पति मि० कोट्स संगीतज्ञ थे, उन दिनों भारतीय संगीत में रुचि ले रहे थे, इसराज पर कभी-कभी अभ्यास करते उन्हें देखा था। पता नहीं, भारतीय संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा उन्होंने किससे, कहाँ ली थी। पत्नी आइरीन कोट्स कवयित्री थीं, Poetry Periodical (पोएट्री पीरियाडिकल) नाम की एक मासिक पत्रिका निकालती र्थी, पर अकादमिक रुचि से, किसी व्यावसायिक दृष्टि से नहीं। दोनों ने अगले वर्ष भारत जाने और कुछ समय दिल्ली में रहने की योजना बनाई थी। उन्हें किसी ऐसे टीचर की ज़रूरत थी जो उन्हें हिन्दी का साधारण ज्ञान करा दे। मैं तैयार हो गया। हफ्ते में दो संध्याएँ-शनिवार और रविवार की मैं उनके साथ बिताता, उन्हें कुछ बोल-चाल की हिन्दी सिखाता, वे मुझे भोजन कराते और दो पौण्ड प्रति सप्ताह दक्षिणा के रूप में देते। बावा के साथ जिस सस्ती डिग में मैं रहता था, उसमें दो पौण्ड सप्ताह भर रहने-खाने के लिए पर्याप्त होते।

चिड़ियों की तरह अब पेड़ों पर न रहना होगा।
पर वापस जाना तो पंखों पर उड़कर ही होगा।

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