जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
कैथरीन्स कॉलेज के उनके कमरे में जाकर मैंने थीसिस की एक प्रति उनके सामने रख दी।
वे इस बात से खुश हुए कि काम शिड्यूल से हो रहा है।
उन्होंने मझसे कहा. 'तीसरे दिन आकर थीसिस ले जाना और डिग्री कमेटी के दफ्तर में जाकर वांछित फीस, यानी दस पौण्ड के साथ दो प्रतियाँ जमा कर देना।'
तीसरे दिन जब मैं मि० हेन से मिलने गया, वे प्रसन्न दिखे, उन्होंने मेरी थीसिस पूरी पढ़ ली थी। वे मेरे काम से सन्तुष्ट थे। उन्होंने कहा, 'मैं डिग्री कमेटी को लिख रहा हूँ कि तुम्हारा डिस्सर्टेशन पी-एच० डी० के लिए परखा जाये। इससे तुम्हारे शोध-प्रबन्ध से परीक्षकों की प्रत्याशा ज़रूर बढ़ जायेगी, पर यह खतरा उठाने योग्य है।'
मैंने उनसे कहा, 'आपने इसे पी-एच० डी० के योग्य समझा यह मेरे लिए अपने आप में बड़े सम्मान की बात है, अब डिग्री कमेटी इसे पी-एच० डी० के योग्य समुझे, न समुझे, इस पर मुझे एम० लिट् दे या मेरी थीसिस को बिल्कुल रिजेक्ट कर दे। जहाँ तक खतरा उठाने की बात है, मैंने पहले ही बहुत-से खतरे उठा रखे हैं।'
मि० हेन ने कहा, 'मैं जानता हूँ।'
उनका संकेत क्या था?
जैसे-जैसे थीसिस सम्बन्धी दिमागी काम से मुझे फुरसत मिल रही थी वैसेवैसे मेरा मूड हल्का होने लगा था, और तेजी के पत्रों से लगता था कि वे गम्भीर होती जा रही हैं। बाईस महीने उन्होंने जिस धीरज-हिम्मत से काटे थे, लगता था कि वह टूट रही है। हिम्मत तो मैं भी उन्हें बराबर बँधाता रहता था, कभी पत्रों से, कभी कविताओं से-
बीच खड़ी हैं हम दोनों के
अभी न जाने कितनी रातें-
अभी बहुत दिन करनी होंगी
केवल इन गीतों में बातें
कितने रंजित प्रात, उदासी
में डूबी कितनी संध्याएँ,
सब के बीच पिरोना होगा, प्रिय, हमको धीरज का धागा।
याद तुम्हारी लेकर सोया, याद तुम्हारी लेकर जागा।
जब चौदह महीने लौटने को शेष थे, तब लिखा था-
अलग हुए कितने दिन बीते
सोच गलत घबराना,
गये हुए की ओर न देखो
देखो जिसको आना
दूर नहीं सब साँझ मिलन की,
लो, गिन कर बतलाता-
ऐसे ही चौदह चाँद फकत हैं बाकी
यह चाँद नया है नाव नई आशा की।
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