जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
अब तो चार ही महीने रह गये थे, एक हल्की-फुल्की तुकबंदी कर डाली। गीत शायद गम्भीर क्षणों की वाणी है। जीवन में कभी अगम्भीर बनने की भी ज़रूरत है।
लो फरवरी भी गयी,
मार्च, अप्रैल, मई,
जून में लिया जहाज़,
लन्दन बाई-बाई
करते हुए कल-आज
पहुँच गये बम्बई,
बम्बई से ली रेल,
तेज़ चला मेल,
किसी जुलाई की रात
पहुँच गये इलाहाबाद
स्टेशन पर अमित-अजित-तेज;
घर पर सुख की सेज,
न लन्दन, पेरिस, डबलिन,
न रोम, बेनिस, बर्लिन
न केम्ब्रिज, न ऑक्सफोर्ड
जो सत्रह क्लाइव रोड।
'जो बलख न बुखारे, वह छज्जू के चौबारे' की आधुनिक प्रतिध्वनि। अपने छज्जू का चौबारा तो 17 क्लाइव रोड ही था।
तेजी न मुसकरायीं।
फिर दूसरा प्रयत्न किया।
तेजी और गम्भीर हो गयीं।
थीसिस जब टाइप हो रही थी, तब मैंने तेजी को चिट्ठी लिखी और मज़ाकमज़ाक में कहा कि 'तुमने तो मुझे 5000/= और भेज देने के लिए कहा था, अब अगर भेज दो तो मैं योरोप का भ्रमण कर आऊँ। मैंने बहुत मेहनत की है और मुझे कुछ मनोरंजन, कुछ सैर-सपाटे की ज़रूरत है।' उन्होंने मुझे पाँच-पाँच हज़ार के मेरे तीनों जानबीमों के नम्बर और उन्हें चुकता करा लेने के लिए फार्म वगैरह भेज दिये कि मैं उन पर हस्ताक्षर करके लौटा दूँ और वे मुझे 5000/= भेज देंगी। मुझे स्पष्ट ब तेजी बचत के इस अन्तिम स्त्रोत को छूने के लिए विवश हो गयी हैं तो उनकी आर्थिक स्थिति क्या होगी।
मैंने उन्हें लिख दिया, 'बच्चों की शिक्षा के लिए जमा राशि को न चाहते हुए भी अपनी शिक्षा पर खर्च करके मैं वैसे ही अपराध-भावना से दबा हुआ हूँ, अब जो किसी आकस्मिक घटना के लिए यह राशि जमा है, उसे मैं न छूना चाहूँगा।'
बावा अपना डिप्लोमा कोर्स खत्म करके अमरीका होते हुए भारत लौटना चाहते थे। उनके मित्र डा० साहना वहाँ पहले ही पहुँच चुके थे, उनका निमन्त्रण भी था। पर अचानक बावा के पिता का देहावसान हो गया था, घर पर केवल उनकी विधवा माँ, छोटे भाई, छोटी बहन थी, इसलिए परीक्षा देते ही, अब वे सीधे भारत लौट जाना चाहते थे। बावा मेरी आर्थिक परिस्थिति से अवगत थे, उन्हें यह भी मालूम था कि लौटने का खर्च पास न होने से मैं चिन्तित हूँ। एक दिन उन्होंने मुझे अपने एहसान और स्नेह-सद्भावना से दबा दिया। जब वे 16 जून के जहाज़ से अपने लिए टिकट बुक कराने लन्दन गये, तो उसी जहाज़ से मेरे लिए भी एक टिकट बुक करा आये। टूरिस्ट क्लास का टिकट लगभग 80 पौण्ड का मिला था। यदि वे मुझे इस चिन्ता से मुक्त न करते तो मैं नहीं जानता कि स्वदेश लौटने के लिए मुझे क्या करना पड़ता!
अब पंखों पर उड़कर स्वदेश लौटने का दुःसाहस न करना पड़ेगा।
दुनिया बड़ी विचित्र है।
इंसानियत के कैसे-कैसे नमूने यहाँ हैं!
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