जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
एक मेरे वह दोस्त थे कि मेरे बारे में झूठी खबरें फैलाकर उन्होंने मुझे सब प्रकार की आर्थिक सहायता से वंचित करा दिया था।
एक मेरे वह दोस्त थे जिन्होंने मेरी अनुपस्थिति में मेरे घर-परिवार की इज्जत मिट्टी में मिला देने को कछ न उठा रखा था।
एक मेरा यह दोस्त था जिसने बिना मेरे माँगे, मेरी ऐसी सहायता की थी जैसी कोई दूसरा उस अजनबी देश में न कर सकता था।
मेरी थीसिस के दो परीक्षक नियुक्त किये गये थे। एक थे वीवियन डि सोला पिन्टो, जो नाटिंघम युनिवर्सिटी के अंग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष थे, दूसरे थे ग्राहम हफ, क्राइस्ट कॉलेज के फेलो और सीनियर इंगलिश ट्यूटर, जिन्होंने हेन की अनुपस्थिति में 4 मास मेरा निर्देशन भी किया था।
थीसिस प्रस्तुत करने के बाद अब केवल 'वाइवा' की तैयारी करनी थी। हेन ने मुझसे कहा था कि मैं अपनी थीसिस को बराबर देखता रहूँ। 'वाइवा' के समय थीसिस की एक-एक प्रति मेरे दो परीक्षकों के हाथ में होगी और एक मेरे हाथ में। मैं उनके प्रश्नों के उत्तर के लिए अपनी थीसिस भी खोल सकूँगा, मगर अगर मैं अपनी थीसिस बिना देखे, उनके उत्तर दे सकूँ तो वे अधिक प्रभावित होंगे।
इसी प्रकार, मुझे उनके प्रश्नों के उत्तर के लिए अपनी थीसिस में दिये तर्कों या आधारों तक सीमित रहना ज़रूरी नहीं। अगर मैं थीसिस के अतिरिक्त भी कुछ सार्थक जोड़ सकूँ तो उसका अधिक प्रभाव पड़ेगा।
ज़रूरी नहीं कि परीक्षक ईट्स अथवा उनके ओकल्टिज़्म तक अपने को सीमित रखें। वे उनके समय और समकालीनों के विषय में भी कुछ प्रश्न उठा सकते हैं या कुछ ऐसे प्रश्न, जो शोध-विषय से सीधे सम्बद्ध न हों। उनके सन्तोषजनक उत्तर परीक्षकों पर अच्छा प्रभाव डालेंगे।
वस्तुत: अच्छे परीक्षक शोध-प्रवृत्ति की सूक्ष्म परख के लिए निश्चित विषय से कछ बाहर की ही बात करते हैं। वे जानते हैं कि शोध-विषय को तो तमने दो वर्षों से घोटा है। उस पर तुमने सटीक उत्तर दिये तो क्या कमाल किया! वे देखना यह चाहते हैं कि शोध-कार्य करके तुम्हारा बौद्धिक स्तर कुछ बढ़ा, कुछ व्यापक हुआ है या नहीं।
मई का महीना थीसिस का आधा दर्जन पारायण, और ईट्स के इर्द-गिर्द के विषयों पर बहुत कुछ पढ़ते, चिन्तन, मनन करके बीता।
वाइवा के विषय में तरह-तरह की आशंकाएँ मन में उठी।
पिछले दिनों हिन्दुस्तानी विद्यार्थियों ने केम्ब्रिज में अच्छा प्रभाव न डाला था।
विश्वनाथ दत्त ने तीन वर्ष तक पी-एच० डी० के लिए काम करके थीसिस प्रस्तुत की थी और परीक्षकों ने उन्हें केवल एम० लिट० दी थी। कैसी विडम्बना है कि जिसने मेरे लिए डॉक्टरेट का सपना सँजोया था, वह खुद केम्ब्रिज से डॉक्टरेट न ले सका। जाते समय विश्वा-कमला कितने निराश और दुखी थे!
कहीं मुझे भी ऐसे ही न जाना पड़े।
शिवकुमार ने भी तीन वर्ष तक The Current of Unconscious in Modern Novel (आधुनिक उपन्यास में अवचेतन की लहर) पर काम करके पी-एच० डी० के लिए थीसिस प्रस्तुत की थी, पर वाइवा के बाद उन्हें कोई डिग्री न दी गयी थी.परीक्षकों ने उन्हें साल भर का समय दिया था कि वे अपनी थीसिस को संशोधित कर पुन: प्रस्तुत करें।
मेरे लिए भी यही कहा गया तो मैं तो काम ही छोड़ बैठूँगा।
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