जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
जो मैं कर सका हूँ, उससे बेहतर अब इस दिशा में मैं और कुछ नहीं कर सकूँगा। हर एक की शक्ति की सीमा होती है। मैंने अपनी पूरी शक्ति लगाई है। इससे अधिक की प्रत्याशा किसी को मुझसे या मुझे अपने से नहीं करनी चाहिए।
सिद्ध गिरकर कर दिया मैंने कि अपनी
शक्ति भर ऊपर उठा मैं।
इन्हीं ऊहापोहों में दिन कटते गये और वाइवा की तारीख आ गयी।
मेरा वाइवा मई के अन्तिम सप्ताह में क्राइस्ट कॉलेज में था।
केम्ब्रिज में डॉक्टरेट की डिग्री शोधार्थी को अच्छी तरह ठोंक-बजाकर दी जाती है। लिखित प्रबन्ध से अधिक महत्त्व 'वाइवा' को दिया जाता है। लिखने में आप पुस्तकों से या दूसरे जानकार लोगों से वांछित अथवा अवांछित सहायता लेकर कुछ ऐसा भी प्रस्तुत कर सकते हैं, जो अपनी सूझ-बूझ या आपकी योग्यता से उद्भूत न हो, पर मौखिक परीक्षा में आप परीक्षक के रू-ब-रू हैं। जो आप हैं, जो आप सोच रहे हैं, जो आपकी स्थापना है, जो आपका तर्क है, वह आपकी आँखों से प्रतिबिम्बित, आपकी मुखमुद्रा से प्रतिच्छायित हो रहा है। आपके लब-लहजे ही बताते हैं कि जो आप कह रहे हैं वह कहाँ तक स्वयं आपकी प्रतीति है। अब न धोखाधड़ी से काम चल सकता है, न उधारी से। यही कारण है कि कई मामलों में शोध-प्रबन्ध तो स्तरीय माना गया पर शोधार्थी को डिग्री का हकदार नहीं करार दिया गया।
मौखिक परीक्षा के विषय में मैंने तरह-तरह की बातें सुन रखी थीं कि परीक्षक लोग थीसिस की धज्जियाँ उड़ा देते हैं- Tear it to bits; कि परीक्षा खुले कमरे में होती है, जिसमें श्रोता और प्रश्नकर्ता के रूप में भी युनिवर्सिटी के अध्यापक और शोधार्थी उपस्थित रह सकते हैं। ट्राइपास की परीक्षाएँ एक समय इसी प्रकार होती ही थीं। मेरे कुछ सह-शोधार्थियों ने तो मुझे विनोदपूर्ण धमकियाँ भी दे रखी थीं कि वे मेरी मौखिक परीक्षा में आयेंगे और मुझे embarrass करेंगे-यानी मुझे छेड़ेंगे, और मैंने उनसे चिरौरी की थी कि 'बाबा, बख्शो मुझे।'
मेरा 'वाइवा' दो बैठकों में हुआ-11 से 1 तक की पहली बैठक में, जिसमें प्रायः वीवियन डि सोला पिन्टो ने मुझसे प्रश्न किये, फिर लंच के बाद-2 से 4 तक की दूसरी बैठक में, जिसमें प्रायः ग्राहम हफ ने मुझसे प्रश्न किये।
हेन ने 'वाइवा' के सम्बन्ध में जो हिन्ट्स मुझे दिये थे उनका मैंने ध्यान रखा। मैं समझता हूँ कि 'वाइवा' मैंने अच्छा किया।
स्वाभाविक था कि अपने परीक्षकों का चेहरा देखकर मैं यह भाँपना चाहूँ कि मेरी थीसिस अथवा मेरे मौखिक उत्तरों के सम्बन्ध में उन्होंने कैसी राय कायम की-अनुकूल कि प्रतिकूल। स्फिक्स का चेहरा भले ही अपना भेद कभी कह दे, पर अंग्रेज़ का 'स्टोनी फेस' (ईट्स के शब्द हैं) अपने भीतर के भाव को कभी बाहर न झलकने देगा।
एक जून को डिग्री कमेटी की मीटिंग थी। 2 जून को दस बजे कार्यालय के बाहर के नोटिस बोर्ड पर परिणाम टाँग दिये जाने के पूर्व मुझे यह पता न लग सका कि मेरी थीसिस पी-एच० डी० के लिए स्वीकृत कर ली गयी है और मैं अगले कान्वोकेशन में डिग्री ले सकता हूँ।
मुझे याद है, मैं बावा को साथ लेकर गया था और उसी को आगे भेजकर मैंने नोटिस बोर्ड देखने के लिए कहा। वह दौड़ता हुआ आया और उसने मुझे बाँहों में भर लिया।
मेरे मुँह से सहसा एक वाक्य निकला, 'इज्ज़त रह गयी।'
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