जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
मैंने सबसे पहले मि० हेन के पास जाकर उन्हें खबर दी और उन्हें प्रणाम किया, फिर मैं मि० हफ के पास गया।
हेन और हफ ने सबसे पहले 'डॉक्टर' कहकर मुझे सम्बोधित किया और मुझे बधाई दी। उनसे विदा लेकर मैंने तेजी को तार दिया।
श्रम सुफल होने पर मुझे खुशी तो बहुत हुई थी।
पर उसे मनाने के साधन का सर्वथा अभाव था।
गरीब के घर लड़का पैदा हुआ था।
जो ही मिलता था बधाई देता था और कहता था The occasion should be celebrated (इस अवसर पर तो दोस्तों को दावत दी जानी चाहिए), और मैं था कि आँखें चुराता था।
मैंने उस रात अपने को कमरे में बन्द कर लिया और रामायण का अखण्ड पाठ किया।
दूसरे दिन तेजी और बच्चों की बधाई का तार आया।
सबकी बधाई फीकी पड़ गयी।
चार दिन बाद तेजी का पत्र मिला। उनकी भी प्रतिक्रिया वही थी-मेरी इज्जत रह गयी।
तेजी ने मेरे डॉक्टरेट पाने की खबर मेरे चित्र के साथ पत्रों में प्रकाशित करा दी थी और उसकी कटिंग मुझे भेज दी थी।
फिर तो कॉलेजों में डिनर के सिलसिले शुरू हुए। कॉलेज के मास्टरों अथवा प्रोवोस्टों ने मुख्य अतिथि के रूप में मुझे निमन्त्रित कर हाई टेबल पर अपने दाहिनी ओर बिठलाकर मुझे खाना खिलाया। यह केम्ब्रिज के कॉलेजों में सबसे बड़ा सम्मान समझा जाता है।
मेरी सफलता पर सबसे अधिक उत्साह-उल्लास सेंट कैथरीन्स कॉलेज की शर्ले सोसायटी के सदस्य-विद्यार्थियों ने दिखाया, मैं भी उसका सदस्य था। उन्होंने आपस में चंदा करके मुझे एक शाम काकटेल पार्टी दी। वे जानते थे, कई अवसरों पर देख चुके थे कि मैं शराब नहीं छूता, पर उस सन्ध्या को उनका आग्रह ज़बरदस्ती की सीमा पर पहुँच गया। सबने डा० बच्चन के लिए जामे-सेहत उठाये और कुछ ने एक शैम्पेन की बोतल खटाक से खोलकर उसकी फेनदार शराब मेरे सिर पर उलट दी।
मैं कैसे कहूँ कि उसकी कुछ बूंदों का स्वाद मेरे अधरों तक न पहुँचा!
उनकी स्नेह-सुरा से मैं भीग गया।
आज तक भीगा हूँ।
तेईस वर्ष बाद, जब ये पक्तियाँ मैं लिख रहा हूँ, उस शराब की ठण्ड अपने माथे, पलकों, गालों पर अनुभव कर रहा हूँ, होंठों पर उसका स्नेह-स्वाद भी।
इसका मलाल भी आज तक सँजोये हूँ-
मैं उन्हें कोई पार्टी न दे सका।
मैंने कभी एक गीत लिखा था, प्रथम पंक्ति थी,
'प्यार की असमर्थता कितनी करुण है!'
उस शाम को जी चाहा इसे थोड़ा बदल दूँ,
'दैन्य की असमर्थता कितनी करुण है!'
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