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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...

:४३:

छोटी रानी की वाग्मिता बड़ी रानी को अधिक आकृष्ट करने लगी और दोनों एक-दूसरे से बहुधा मिलने-जुलने लगीं। थोड़े ही दिनों में दोनों के बीच का बहुत दिनों से चला आनेवाला अंतर कम हो गया। राजा को इस मेल-जोल पर संतोष हआ, परंतु जनार्दन को इसमें श्रद्धा के योग्य कुछ न दिखाई दिया।

एक दिन बहुत लगन के साथ छोटी रानी बड़ी रानी से बातें कर रही थीं। बातचीत के सिलसिले में छोटी रानी ने कहा, 'जब तक हम लोग इस बंदीगृह में बैठी-बैठी दूसरों का मुँह ताकती रहेंगी, तब तक कोई सरदार मैदान में नहीं आवेगा। बाहर निकलते ही बहुत से सरदार साथ हो जाएंगे।'

बड़ी रानी थोड़ी देर पहले कही हुई एक बात को दुहराते हुए बोलीं, 'इसमें कोई संदेह नहीं कि इस राज्य के असली अधिकारी कैद में हैं और जिसे कैद में होना चाहिए, वह राज्यदंड हाथ में लिए है।'

'परंत उसके छीनने की शक्ति अब भी हमारे हाथ में है।' छोटीरानी ने उत्तर दिया।

बड़ी रानी ने पूछा, 'मुझे केवल एक बात का भय है कि यदि तुम्हारी योजना असफल हई. तो रक्षा का यह एक स्पान भी हाथ से निकल जाएगा।'

'रक्षा का! इस बंदीगृह को रक्षा का स्थान बतलाती हैं। मेरे लिए तो सबसे बड़ी रक्षा का साधन घोड़ा. तलवार और रणक्षेत्र है।'

'मैं भी मानती हूँ और यदि काफी तादाद में सरदार लोग सहायता के लिए आ गए, तो सब काम बन जाएगा। परंतु यदि ऐसा न हुआ तो प्रलय की आशंका है।'

'जरा भी नहीं। दृढ़ निश्चय के साथ जो काम किया जाता है, वह कभी असफल नहीं होता। थोड़ी देर के लिए मान लीजिए, असफल भी हो गए, तो इस अवस्था की अपेक्षा स्वतंत्र विचरण फिर भी बहुत अच्छा होगा।'

'तो यहाँ लौटकर नहीं आयेंगी, यह निश्चय है।' 'असफलता का कोई कारण नहीं मालूम होता। असफलता ही हुई, तो इस जीवन से मरण अच्छा। आप किसी बात से डरती हैं?' .

बड़ी रानी ने निश्चयपूर्ण स्वर में कहा, 'मुझे कोई डर नहीं, मैं डरती किसी से भी नहीं। परंतु यह कहती हूँ कि जो कुछ करो, सोच-समझकर।'

छोटी रानी अधिक निश्चयपूर्ण स्वर में बोलीं, 'बिलकुल सोच-समझ लिया है। रामदयाल अपने पक्ष के सरदारों से मिल चुका है। वे लोग नए राजा से असंतुष्ट हैं, परंतु जब तक हम लोग महलों में बंद हैं, तब तक वे लोग अपनी निजी प्रेरणा से कछ नहीं कर सकते। बाहर निकल पड़ते ही ठठ के ठठ सरदार आ पहुँचेंगे।'

'यहाँ से चलकर ठहरोगी कहाँ?' बड़ी रानी ने जरा संकोच के साथ पूछा।

'कहीं भी, दलीपनगर के बाहर कहीं भी। सिंह की गुफा में, नदी की तली में, पहाड़ के शिखर पर, कहीं भी।' छोटी रानी ने उत्तेजित होकर उत्तर दिया, 'हमारे स्वामिधर्मी
सरदार कहीं भी हमारी सहायता के लिए आ सकते हैं।'

बड़ी रानी ने प्रतिवाद करते हुए, कुछ रुखाई के साथ कहा, 'मैं इस तरह की यात्रा के प्रस्ताव से सहमत नहीं हो सकती। व्यर्थ मारे-मारे फिरने से यहीं अच्छे।'
छोटी रानी तुरंत रुख बदलकर बोलीं, 'रामनगर के राव के यहाँ ठिकानारहेगा। वहाँ से अलीमर्दान की भी सहायता सहज हो जाएगी। सिंहगढ़ पर चढ़ाई उसी ओर से अच्छी तरह हो सकती है।'

छोटी रानी के ढले हुए स्वर ने बड़ी रानी को नरम कर दिया। कहा, रामनगर के राव के पास बड़ा बल तो नहीं, परंतु स्थान रक्षा के विचार से अच्छा है। अलीमर्दान की सहायता के बिना काम न चलेगा?'

'वह हमारा राखीबंद भाई है।' छोटी रानी ने उत्तर दिया, 'उसकी ओर से जी में कोई खटका मत कीजिए। किसी भी मंदिर के विध्वंस करने की कोई इच्छा उसके मन में नहीं है।

इसी समय एक दासी ने बड़ी रानी को खबर दी कि दीवान जनार्दन आशीर्वाद लेने के लिए आना चाहते हैं।

बड़ी रानी उसका नाम सुनते ही चौंक पड़ी। छोटी रानी से कहा, 'इस समय इसका यहाँ आना बुरा हुआ। न मालूम किस टोह को लगाकर आया है।'

छोटी ने आश्चर्य प्रकट किया, 'बुरा हुआ! क्या वह इस कैदखाने का दरोगा है, जो आप भयभीत-सी मालूम पड़ती हैं? क्या बुरा हुआ?'

बड़ी को चोट-सी लगी। उन्होंने दासी से पूछा, 'और कुछ नहीं कहते थे?' छोटी रानी की ओर देखकर दासी ने जवाब दिया, और कहते थे, महाराज!' छोटी रानी ने कड़ाई के साथ पूछा, 'क्यों डरती है? बोल, क्या कहते थे?' उसने उत्तर दिया, 'केवल यह पूछते थे कि छोटी महारानी भी यहाँ हैं या नहीं?' 'तूने क्या कहा?' बड़ी ने पछा।

छोटी रानी बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए हुए बोलीं, 'इसने कह दिया होगा कि हैं। मैं कोई बाघनी या तेंदुनी तो हूँ नहीं, जो इसी समय दीवानजी को फाड़ डालूँगी?'
दासी ने उत्तर दिया, 'नहीं महाराज, मैंने कहा था कि नहीं हैं।' छोटी रानी ने कड़ककर प्रश्न किया, 'क्यों? तूने क्यों यह झूठ बोला?'

दासी काँपने लगी।

बड़ी रानी ने शांति स्थापित करने के प्रयोजन से कहा, 'यह बेचारी साधारण स्त्री है, मुँह से निकल गया होगा। कोई बुराई मत मानो। वह मुझे चाहती है और मेरा इस पर स्नेह है। यहाँ की और स्त्रियाँ तो दष्ट हैं।'

छोटी रानी कुछ नहीं बोलीं। कुछ सोचती रहीं। बड़ी रानी ने कहा, 'तुम जरा छिपकर देखो न, जनार्दन क्या कहता है, किस प्रयोजन से आया है?'

'व्यर्थ है।' छोटी रानी ने उत्तर दिया, 'वह इस बात को जानता है कि आप मेरे ऊपर कृपा करती हैं, इसलिए मेरे छिपकर सुनने लायक कोई बात न कहेगा।' 'तो भी क्या हर्ज है।' बड़ी रानी ने कहा, 'सन लो। तमाशा ही सही।'
छोटी रानी बड़ी को प्रसन्न करने की नीयत से बोलीं, 'छिपने की क्या जरूरत है। मैं एक कोने में बैठी जाती हूँ। ड्योड़ी के बाहर से वह बातचीत करेगा। मैं अपने को प्रकट न होने दूंगी। आप उसे बुलवा लें।' 


बड़ी रानी ने जनार्दन को लिवा लाने के लिए संकेत किया और छोटी रानी से कहा, 'यह उन स्त्रियों में से है, जो मेरे लिए अपना सिर कटाने को तैयार रहती है।' इस पर
छोटी रानी केवल मुसकराई। कोई मंतव्य प्रकट नहीं किया।

थोड़ी देर में जनार्दन आ गया। आशीर्वाद और कुशल-मंगल पूछने के पश्चात् उस दासी द्वारा जनार्दन और बड़ी रानी का वार्तालाप होने लगा।
जनार्दन ने पूछा, 'छोटी महारानी न मालूम मुझसे क्यों रुष्ट हैं? महाराज इस बात को जानते हैं कि मैं उनका कोई अहित-चिंतन नहीं करता।'
बड़ी रानी ने जवाब दिलवाया, 'इस बात से मेरा कोई संबंध नहीं। आप इस विषय पर उन्हीं से कहें-सुनें।'

'मैं आपकी सहायता चाहता हूँ। उन्हें इस राज्य में जो स्थान पसंद हो, उसमें आनंदपूर्वक रहें, जिससे इस लाँछन से बचूँकि दलीपनगर में मैंने इन्हें बरबस रोक रखा
है।'
'इसे तो वह अवश्य पसंद करेंगी।' और जवाब देनेवाली ने रानी की ओर से कहा, 'बड़ी महारानी भी कुछ दिनों के लिए बाहर यात्रा कर आवेंगी।'

जनार्दन को यह प्रस्ताव पसंद न आया। बोला, 'आजकल अवस्था जरा खराब हो रही है और वैसे भी यह स्थान तो आपको बहुत प्यारा रहा है। आपने कभी शिकायत नहीं की कि बीच में टोक दिया गया। बड़ी रानी की तरफ से कहा गया, 'जरूर जाऊँगी। कैदी नहीं हैं, जो उन्हें तो जाने दिया जाए और इन्हें रोक रखा जाए।'
जनार्दन बोला, 'मैं महाराज से अनुमति के लिए कहूँगा। परंतु जिस काम से मैं आया था, वह यदि यहाँ नहीं हो सकता, तो छोटी रानी के ही पास जाकर अपने अपराधों की क्षमा माँगूंगा।' 


'वहाँ आने की कोई आवश्यकता नहीं।' छोटीरानी ने दासी का आश्रय लिए बिना ही परदे के भीतर से कहा, 'हम दोनों अत्याचार-पीड़ित स्त्रियाँ एक स्थान में शांति के साथ रहना चाहती हैं, वह भी तुम्हें सहन नहीं। हमारा राज-पाट ले लिया और दोनों को एक-दूसरे से अलग करके क्या किसी एकांत गढ़ी में हमारा सिर कटवाओगे?'

जनार्दन चौंका नहीं। थोड़ी देर तक स्तब्ध, निश्चल बनारहा। कुछ ही क्षण पश्चात् बोला, 'मैंने तो ऐसी कोई बात नहीं कही, जिससे आपके निष्कर्ष की पुष्टि होती हो। आपसे क्षमा-प्रार्थना करने की ही बात कह रहा था। वह न रुची, जाता हूँ।'

यदि ठहरता, तो उसे और प्रलाप भी सुनना पड़ता।


छोटी रानी ने सन्नाटे में आईहुई बड़ी रानी से कहा, 'देख लो इसकी चाल! हम लोगों को अलग करना चाहता है और अलग करके हमारा नाश। हम लोग अलग नहीं हो सकती।'
बड़ी रानी ने जोर के साथ कहा, 'कभी नहीं। मैं तुम्हें कदापि न छोडूंगी।'

जनार्दन दोनों रानियों को एक-दूसरे से अलहदा करना चाहता था। इसी प्रयोजन से वहाँ गया भी था, परंतु अपनी साधारण सावधानी से काम न करने के कारण और छोटी रानी के ताड़ लेने से उसका मनोरथ निष्फल हो गया। छोटी रानी के कुवाक्य का उसे बहुत थोड़ी देर ध्यान रहा होगा। उसके मन में बहुत ग्लानि थी कि चतुराई के साथ बातचीत नहीं की।

राजा के पास गया। चतुर मंत्री के लिए समय से बढ़कर मूल्यवान और कोई चीज नहीं हो सकती। इसलिए उसने राजा से तुरंत भेंट की। दोनों रानियों की परस्पर बढ़ती हुई घनिष्ठता में किसी भयंकर विपद की विभीषिका, किसी विकट षड्यंत्र की जननशक्ति की आशंका का चित्र जनार्दन ने खींचा।

राजा ने जरा खीझकर कहा, 'तब क्या करूं? जब तक कोई बड़ा अपराधसिद्ध न हो जाए, दंड दिया नहीं जा सकता।'
राजा की खिझलाहट से जरा भी न घबराकर जनार्दन बोला, 'न तो किसी अपराध के सिद्ध करने की जरूरत है और न किसी दंड के विधान की। इन्हें तो अन्नदाता दो
अलग-अलग स्थानों में सम्मानपूर्वक रख दें।'
'इससे वैमनस्य और बढ़ेगा। जो सरदार अभी पीछे-पीछे और शायद दबी-जबान यह कहते हैं कि हम लोगों ने रानियों को महल में कैद कर रखा है, वे भड़ककर खुल्लमखुल्ला बुराई करेंगे। रानियों को यहाँ से हटाकर मैं अपने लिए व्यर्थ का विरोध नहीं खड़ा करना चाहता।'

'अन्नदाता, वे यहाँ बैठी-बैठी सम्मिलित शक्ति से राज्य को उलटने-पलटने की तरकीबें सोचा करती हैं, सरदारों को अराजकता के लिए उभाड़ा करती हैं। एक-दूसरे से दूर रहने पर दोनों निर्बल हो जाएँगी।'

'मैं इस बात को नहीं मानता।' 'जैसी महाराज की मर्जी हो, परंतु छोटी रानी की हरकतों के मारे मेरी तो नाक में दम आ गया है। यह तो अन्नदाता को मालूम ही है कि मेरा सिर काटने या कटा लेने का रानी ने प्रण ठान रखा है-'

राजा ने हँसकर जनार्दन की बात काट दी। कहा, 'डरो मत। तुम्हारी उम्र अभी बहुत है। चाहे ज्योतिषियों से पूछ लेना।' फिर एक क्षण बाद गंभीर होकर राजा बोला, 'शर्माजी, तुम्हें तलवार चलाना सीखना चाहिए था। राजनीति के गणित लगाते-लगाते बहुत से व्यर्थ भय के भूत तुम्हें सताने लगे हैं। स्त्रियाँ बात काटती हैं, सिर नहीं काटतीं। अपना काम-काज देखो। राज्य की बहुत-सी समस्याएँ तुम्हें उलझाने के लिए यों ही बहत काफी हैं। इधर का ख्याल जरा कम कर दो। कुछ मेरा भी भरोसा करो।'

विनीत भाव से दीवान ने कहा, 'महाराज का भरोसा न होता तो एक घड़ी भी बचना करीब-करीब असंभव था, परंतु-'
'किंतु-परंतु कुछ नहीं।' राजा ने कहा। फिर हँसकर बोला, 'तुम्हारा सिर सही-सलामत है। घबराओ मत। मौज करो।'
जनार्दन चला आया। अकेले में एक आह भरकर मन में बोला, 'अब तो मेरा सिर राजा को इतना सस्ता मालूम पड़ना ही चाहिए।'

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