ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
|
364 पाठक हैं |
वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
:४७:
कुंजरसिंह मुसावलीवाले कृषक और चरवाहे के साथ विराटा की ओर पैदल गया। वह अपने को प्रकट नहीं करना चाहता था। मार्ग के भरकों और वृक्षों के समूहों में होकर जाते हुए उसने सोचा-यदि वही हैं, तो शायद पहचान लें। न पहचानें, तो बुराई ही क्या? जिसे संसार ने करीब-करीब त्याग दिया है, उसे देवता क्यों तिरस्कृत करने चला? न पहचाने जाने में एक सुख भी है। खोद-खोदकर लोग कुशल-वार्ता न पूछेगे और उन्हें व्यथा न होगी। शांतिपूर्वक उनके दर्शन कर लूँगा। परंतु यदि उन्होंने पहचान भी लिया, तो उन्हें व्यथा क्यों होने लगी? मैं उनका कौन हूँ। केवल भक्त, और फिर थोड़े से पलों का परिचय।। __ कृषक और चरवाहों ने बातचीत करनी चाही। कुंजरसिंह अन्यमनस्क था।
प्रोत्साहन न पाकर वे लोग आपस में ही बातचीत करते चले।
थोड़ी देर में नदी पार करके टापू के सिरे पर स्थित मंदिर में पहुंच गए। वह देवी के दर्शनों का खास समय न था। कृषक और उसके साथी को घर लौटना था, परंतु कुंजरसिंह ने कहा, 'क्यों जल्दी करते हो? यदि किसी ने मना कर दिया, तो अपना-सा मुँह लेकर रह जाएंगे और ठहरना तो पड़ेगा ही।'
कृषक बोला, 'कए सें का बिगरत? जो दर्शन होजें तो अच्छौ है ओर न हूँ हैं तो आप ठैर जइयो, हम भोर फिर आ जैहें।' कृषक ने विनय के साथ कहा, 'पालर मैं जे कोऊ ठाकुर आए हैं, दर्शन गोमती करन चाउत हैं। का अबैदर्शन न हुईएँ? कोउ बहुत बड़े आदमी हैं।'
गोमती पालर का नाम सुनकर जरा पास आई। कुंजरसिंह को पहचानने की चेष्टा की, न
पहचान पाया।
कृषक से बोली, 'यह पालर के नहीं जान पड़ते। किसी और स्थान के हैं। मैं तो
पालर के हर व्यक्ति को जानती हूँ।'
'परंतु वे तो अपुन खों पालर को बताउत्ते।'
चरवाहे बालक ने कहा, 'पालर सें तो आई हैं। झूठी थोरक सी बोलत। हमसे कही, हमाए
दाऊ सैं कही।'
इस चर्चा ने कुमुद को भी उस स्थान पर आकृष्ट कर लिया। एक ओर से अपने आगंतुकों
को बारी-बारी से देखा। कुंजरसिंह को उसने कई बार बारीकी से देखा। वहाँ से
हटकर चली गई। नरपतिसिंह को भीतर से भेजा।
उसने आकर अधिकार के स्वर में कहा, 'क्या है? आप लोग क्या चाहते हैं?'
'दर्शन।' क्षीण स्वर में कुंजर ने उत्तर दिया। 'हो जाएंगे।' नरपति ने उसी
स्वर में कहा, 'जरा ठहरिए। हाथ-पैर धो लीजिए। आप पालर से आए हैं?'
'जी हाँ।' कुंजर ने बहुत क्षीण स्वर में उत्तर दिया।
नरपति, 'आपको पालर में तो मैंने कभी नहीं देखा। आप वहाँ के रहनेवाले नहीं हैं।' कुंजरसिंह, रहनेवाला तो वहाँ का नहीं हूँ, परंतु उस समय अर्थात् कुछ दिन हुए, तब आया वहीं से था।'
नरपति ने पास आकर कुंजरसिंह को घूरा। कुछ सोचकर बोला, 'आपको कभी कहीं देखा अवश्य है, परंतु याद नहीं पड़ता। पालर के ऊपर कालपी के नवाब के आक्रमण के समय आप दलीपनगर की सेना में या ऐसे ही किसी मेले में उससे पहले कभी आए हैं।' 'आप ठीक कहते हैं।' कुंजर ने जरा संभलकर कहा, 'मैं एक मेले में पालर गया था।'
नरपति ने अपनी स्मरण-शक्ति को जरा और दबाकर पूछा, 'आप कालपी के सैनिकों के
उपद्रव के समय पालर में नहीं थे, मुझे आपकी आकृति खूब याद आरही है।'
कुंजरसिंह ने टोरिया से नीचे बहती हुई बेतवा की धारा और उस पार के जंगलों की
हरियाली को देखते हुए कहा, 'मुझे याद नहीं पड़ता। शायद आया होऊँ।'
कुमुद ने भी यह वार्तालाप सुना। गोमती जरा उत्सुकता के साथ बोली, 'आप दलीपनगर
के रहनेवाले होंगे।'
'हाँ।' कहकर कुंजर ने सोचा, प्रश्नों की समाप्ति हो जाएगी और हाथ-पाँव धोने
के लिए नदी की ओर टौरिया से नीचे उतर गया। नरपतिसिंह सिर खुजाता हुआ भीतर चला
गया। गोमती कृषक से बातचीत करने लगी। बोली, 'तुम इन ठाकुर को पहचानते हो।'
उसने उत्तर दिया, 'मैं तो नई चीनत। मोसें तो कहत्ते कै पालर के आ हैं।'
'तुमसे इनसे क्या संबंध?'
'मोरे इतै डेरा डारे हैं।'
'तब तुम्हें इससे ज्यादा जानने की अटक ही क्या पड़ी? पालर से आए, इसलिए पालर का बतलाया, परंतु हैं यह असल में दलीपनगर के रहनेवाले। दलीपनगर का कुछ हाल इन्होंने बतलाया था?'
'हमें तो अपने काम में उकास नई मिलत।'
और अधिक बातचीत करना उचित न समझकर गोमती कुमुद के पास चली गई। कुमुद कुछ व्यग्रता के साथ मंदिर को साफ कर रही थी। पहले की अपेक्षा दोनों में अब संबंध कुछ अधिक घनिष्ठ हो गया था।
बोली, 'दलीपनगर से एक ठाकुर आए है।' किसी भाव से दीप्त होकर कुमुद का चेहरा एक क्षण के लिए रंजित हो गया। गोमती की ओर बिना देखे ही उसके कहा, 'हाँ, आए होंगे। नित्य ही लोग आया करते हैं।'
'इनसे वहाँ का कुछ हाल पूछ?'
'पूछने में तुम्हें लाज नहीं आवेगी? और फिर इसका क्या निश्चय कि वह ठाकुर
कोई संतोषप्रद वृत्तांत भी तुम्हें सुना सकेंगे या नहीं।'
'तब क्या करूं? दलीपनगर का तो बहुत दिनों से कोई यहाँ आया ही नहीं। यह एक आए
हैं, सो प्रश्न करने में मुझे भी संकोच मालूम होता है। इसलिए पूछा!'
'मैं क्या कह सकती हूँ?' 'पूछ कुछ हाल?' 'तुम्हारा मन न मानता हो, तो पूछ देखो; परंतु मुझे विश्वास है, तुम्हें कोई संतोषजनक उत्तर न मिलेगा। इस समय वह हारे-थके भी होंगे। यदि आज यहाँ बस जाएँ, तो सवेरे निश्चित होकर पूछ लेना, नहीं तो पिताजी द्वारा कहो, तो मैं बहुत-सा हाल पुछवा लूँ?'
गोमती सहमत हो गई। थोड़े समय के पीछे हाथ-पाँव धोकर कुंजरसिंह नदी से आ गया।
उसने नरपतिसिंह से दर्शनों की इच्छा प्रकट की।
नरपतिसिंह ने एकाएक कहा, 'मैंने पहचान लिया।' कुंजरसिंह का बेतवा के जल से
धुला हुआ मुँह जरा धूमरा पड़ गया। नरपति के मुंह की ओर देखने लगा।
नरपति ने कहा, 'आप उस दिन पालर के दंगा करनेवालों में थे। अवश्य थे। वह दिन
भुलाए नहीं भूलता। न वह दंगा होता और न हमें इतनी विपद् झेलनी पड़ती। परंतु,
परंतु-'
नरपति सोचने लगा। एक क्षण बाद बोला, परंतु एक लंबा दुष्ट और था, सफेद
दाढ़ी-मूंछवाला, उसी ने गोल-माल किया था।'
कुमुद और वार्तालाप के बीच में केवल एक छोटी-सी दीवार थी। कुमुद ने तुरंत
पुकारकर कहा, 'यहाँ आइए।'
कुमुद की पुकार के उत्तर में नरपति हाँ कहते हुए कुंजर से बोला, 'आप शायद
नहीं थे, शायद कोई और रहा हो; परंतु वह बूढ़ा अवश्य था।'
कुंजरसिंह कुछ उत्तर देना चाहता था, परंतु नरपति के संदेह का निवारण करना इस
समय उसका उद्देश्य न था इसलिए जरा-सा खाँसकर चुप रहा।
नरपति भीतर से लौटकर तुरंत आ गया। बोला, 'चलिए, दर्शन कर लीजिए।'
कृषक और चरवाहा भी हाथ-पैर धोकर आ गए थे, परंतु उन्हें नरपति ने टोका। कहा,
'तुम लोग फिर दर्शन कर लेना। यह तुम्हारे लिए समय नहीं है।'
कुंजर लौट पड़ा। बोला, 'उन्हें भी आने दीजिए। इन बेचारों को इसी समय लौट जाना
है। मैं तो दर्शनों के लिए रुक भी सकता हूँ।'
कुंजर का प्रतिवाद शायद बेकार जाता, परंतु कृषक और चरवाहा मंदिर में धंस
पड़े। नरपति उन्हें रोक न पाया।
देवी की मूर्ति के पास एक किनारे पर कुमुद बैठी थी। वही मुख, वही रूप। आज केवल कुछ अधिक आतंकमय दिखलाई पड़ा। भौंहों के बीच में सिंदूर और भस्म का टीका अधिक गहरा था।
पुजारिन को एक बार चंचल दृष्टि से कुंजर ने देखा, फिर देवी को साष्टांग प्रणाम करके मन-ही-मन कुछ कहता रहा।
जब विभूत-प्रसाद की बारी आई, तब फिर कुमुद की ओर देखा। वह पीली पड़ गई थी।
काँपते हुए हाथ से कुमुद ने फूल और भस्म कुंजरसिंह को दी। वह अँगूठी उसकी उँगली में अब भी थी। कुंजर ने नीची दृष्टि किए हुए ही काँपते कंठ से कहा, 'वरदान मिले। बहुत दुर्गति हो चुकी है।'
कुमुद देवी की ओर देखने लगी, कुछ न बोली।
कुंजर ने फिर कहा, 'देवी के वरदान के बिना मेरा जीवन असंभव है।' कुंजर का गला और अधिक काँपा।
'देवी जो कुछ करेंगी, सब शुभ करेंगी।' कुमुद ने कुंजर की ओर दृष्टिपात करने का प्रयत्न करते हुए उत्तर दिया।
इतने में नरपति बोला, 'आप पालर क्या अभी चले जाएँगे?' कुंजर के मन में कोई जल्दी न थी। बोला, 'अभी तो न जाऊँगा। और कुछ ठीक नहीं, कहाँ जाऊँ।'
'तो क्या आप दलीपनगर जाएँगे?' नरपति ने पूछा। 'वहाँ का भी कुछ ठीक नहीं।' कुंजर ने संयत निःश्वास के साथ उत्तर दिया।
कुमुद अपने सहज-स्वाभाविक धैर्य को पुनः प्राप्त-सा करके भर्राए कंठ से बोली, 'इनके भोजनों का प्रबंध कर दीजिए।'
गोमती ने एक कोने से कहा, 'और विश्राम का भी, क्योंकि लौटकर कल जाएंगे, संध्या होनेवाली है।
|