ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
:४८:
मंदिर का विस्तार थोड़े-से स्थान में था। उसकी कोठरियाँ भी छोटी-छोटी थीं।
नरपति ने अपनी कोठरी में कुंजरसिंह को स्थान दिया। भोजन के उपरांत नरपति
कुंजर के पास बैठ गया। दोनों एक दूसरे के साथ बातचीत करने के इच्छुक थे,
परंतु नरपति दिमाग के किसी दोष के कारण और कुंजरसिंह किसी संकोच के बस यह
निश्चय नहीं
कर पा रहे थे कि चर्चा का आरंभ किया किस तरह जाए।
इतने में पास ही कोठरी में गोमती ने जरा आह खींचकर कुमुद से कहा, 'काकाजू को
आज जल्दी नींद आ गई!'
नरपति ने सुन लिया। किसी कर्तव्य का स्मरण करके कुंजर से बोला, 'मैं बड़ी देर
से सोच रहा हूँ कि आपको उस दंगे के अवसर पर पालर में देखा था या नहीं। आप थे
या आपके साथ राजकुमार था। था कोई अवश्य। बहुमूल्य वस्तु देवी को भेंट की थी,
परंतु और याद नहीं पड़ता। दिन बहुत हो गए हैं। बूढ़ा हूँ और देवी कीरट के
सिवा मन में अब कुछ उठता भी नहीं।'
'मैं क्या कहूँ।' कुंजर ने कहा, 'इसे जानकर आप क्या करेंगे? किसी दिन मालूम हो जाएगा। आपके लिए इतना जान लेना बहुत होगा कि आफतों का मारा हुआ हूँ।'
'क्या आप राजकुमार हैं?' कुछ जोर से और एकाएक नरपति ने पूछा। कुंजर ने बहुत धीरे से जवाब दिया, 'सैनिक हूँ। संसार का ठुकराया दरिद्र मनुष्य हूँ और अधिक मत पूछिए।'
पास की कोठरी में लेटी या बैठी हुई उन दोनों स्त्रियों ने नरपति का प्रश्न तो सुन लिया, परंतु शायद उत्तर न सुन पाया।
नरपति ने पूछा, 'आप दलीपनगर के रहनेवाले हैं?'
'जी हाँ।'
'वहाँ का राजा कौन है? सुनते हैं, कोई देवीसिंह राज्य करते हैं।'
'आपको मालूम तो है।'
'कैसे राजा हैं?'
कुंजर चुप रहा। नरपति ने जिद करके पूछा, 'कैसा राजा है? प्रजा को कोई कष्ट तो नहीं देता?' 'अभी तो सिंहासन को अपने पैरों के नीचे बनाए रखने के लिए खून-खराबी करता है।'
'यह राज्य तो उन्हें महाराज नायकसिंह ने दिया था?' 'बिलकुल झूठ बात है।'
नरपतिसिंह ने पांडित्यप्रदर्शित करते हुए कहा, 'हमें भी ख्याल होता है कि महाराज ने राज्य न दिया होगा, क्योंकि उनके एक कुमार थे। उनका क्या हुआ? अब क्या वह राजकुमार नहीं हैं? सच-सच बतलाइए। आपको कसम है।'
कुंजरसिंह ने एक क्षण सोचकर कहा, 'नहीं, मैं इस समय वह नहीं हैं, परंतु जो राजकुमार है; वह किसी समय प्रकट अवश्य होगा।'
नरपतिसिंह अपनी उसी धुन को जारी रखते हुए बोला, 'राजकुमार बड़ा सुशील और होनहार था। मैंने उसके लिए देवी से प्रार्थना की थी। उस बेचारे को राज्य तब नहीं मिला, तो कभी-न-कभी मिलेगा।'
'स्वार्थियों की नीचता के कारण।' कुंजर ने उत्तर दिया, 'दलीपनगर में जनार्दन शर्मा एक पापी है। उसके षड्यंत्रों से देवीसिंह राजा बन बैठा है। वास्तविक राजकुमार वंचित हो गया है और रानियों की मूर्खता के कारण भी उसे नुकसान पहुंचा है-'
नरपति ने टोककर कहा, 'देवी की कृपा हुई, तो असली हकदार को फिर राज्य मिलेगा
और नीच, स्वार्थी, पापी लोग अपने किए का फल पावेंगे।'
गोमती को दूसरी कोठरी में बड़ी जोर से खाँसी आई।
उसकी खाँसी के समाप्त होने पर कुंजर ने पूछा, 'विराटा के राजा के पास
फौज-फाँटा कैसा है?'
'अच्छा है।' नरपति ने उत्तर दिया, 'रामनगर के राव साहब की अपेक्षा यह बहुत जन
और धन-संपन्न हैं। वह अपने को छिपाते बहुत हैं, नहीं तो उनमें इतनी शक्ति है
कि किसी भी राजा या नबाव का मुकाबला कर सकते हैं। हमारी जाति के वह गौरव
हैं।' . .
कुंजर ने नरपति के जाति-गर्व को मन-ही-मन क्षमा करते हुए कहा, 'यदि किसी समय
दलीपनगर के राजकुमार उनसे मिलने आवें तो अच्छी तरह मिलेंगे या नहीं?'
'अवश्य।' नरपति ने उत्तर दिया, 'राजा राजाओं के साथ बराबरी का ही बरताव करते
हैं। आपसे उस राजकुमार से कोई संबंध है?'
'जी हाँ।' . 'क्या?'
'मैं उनकी सेना का सेनापति हूँ।' 'वही तो, वही तो।' नरपति ने दंभ के साथ कहा, मेरी स्मरणशक्ति ने धोखा नहीं खाया था। मुझे देखते ही विश्वास हो गया था कि आप राजकुमार या राजकुमार के साथी या दलीपनगर के कोई व्यक्ति अवश्य हैं।'
स्मरण-शक्ति का यह प्रमाण पाकर कुंजरसिंह को अपनी उस दशा में भी मन में हँसी
आ गई। बोला, 'राजकुमार आपके राजा से पीछे मिलेंगे, मैं उनसे पहले मिल
लूँगा। आप कुछ सहायता करेंगे?'
नरपति ने पूछा, 'उस दंगे के दिन राजकुमार के साथ आप किस समय आए थे या शुरू
से ही साथ थे?'
कुंजर ने अँधेरी कोठरी में दृढ़ता के साथ उत्तर दिया, 'मैं शुरू से ही साथ
था। आपको अवश्य याद होगा।'
तुरंत ही कुंजरसिंह ने अपने पहले प्रश्न को फिर दुहराया, 'आप राजकुमार की कुछ
सहायता कर सकेंगे?'
नरपति बोला, 'अवश्य। मैं आपके कुमार के लिए देवी से प्रार्थना करूँगा और राजा
सबदलसिंह से भी कहूँगा। अपने साथ आपको ले चलूँगा।'
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