ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
:४९:
नरपति और कुंजर शायद जल्दी सो गए होंगे, परंतु उन दोनों युवतियों को देर तक नींद नहीं आई। धीरे-धीरे बात करती रहीं।
गोमती ने कहा, 'यह तो उनके वैरी का आदमी निकला। क्या इसका यहाँ अधिक टिकना अच्छा होगा?'
'यह मंदिर है।' कुमुद ने उत्तर दिया, 'यहाँ कोई भी ठहर सकता है। किसी को मनाही नहीं।'
'चाहे जितने दिन?'
'इसके विषय में मैं कुछ नहीं कह सकती। काकाजू जानें।'
'काकाजू ने उसे वचन-सा दिया। यहाँ के राजा यदि महाराज के विरुद्ध हथियार उठावें भी, तो उनका कुछ बिगड़े नहीं। देवी का वरदान उनके लिए है। परंतु काकाजू का साथ देना मुझे भयभीत करता है।'
'अपनी-अपनी-सी सभी कहते हैं। काकाजू ने इस सैनिक को यहाँ के राजा के पास
पहुँचा देने की सहायता के लिए अनुरोध-मात्र का वचन दिया है। इससे आगे और बात
से उन्हें प्रयोजन ही क्या है?'
गोमती की घबराहट इससे शांत न हुई। विनयपूर्वक बोली, परंतु वह देवी से भी
प्रार्थना करेंगे। इससे उन्हें, क्या कोई रोक सकेगा?'
'देवी से प्रार्थना वह नहीं करते।' कुमुद ने रूखेपन के साथ कहा, 'जो कुछ
कहना होता है, वह मेरे द्वारा कहा जाता है।'
गोमती चुप हो गई। थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा। फिर बोली, 'क्या सो गई?'
'अभी नहीं।' उत्तर मिला।
'अपराध क्षमा हो; तो एक बात कहूँ?' 'कहो।'
'न मालूम क्यों मेरे मन में रह-रहकर एक खटका उत्पन्न हो रहा है कि यह मनुष्य मेरे अनिष्ट का कारण होगा।'
'तुम्हारा भय भ्रम से उत्पन्न हुआ है, जैसे सब तरह के भयों का मूल कारण किसी-न-किसी प्रकार का भ्रम होता है।'
'तो आप एक बार फिर कह दें कि महाराज का इस व्यक्ति के द्वारा कोई अनिष्ट न होगा।'
'उस दिन सब कुछ कह दिया था। अब और कुछ नहीं कहूँगी।'
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