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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...

:५१:

गोमती को मालूम हो गया कि दाँगी राजा ने सहायता प्रदान का पक्का वचन न भी देकर अपने को कुंजरसिंह का सेनापति बतानेवाले व्यक्ति को आश्रय-दान दिया है। गोमती को अखरा। यद्यपि वह स्वयं दूसरों के आश्रित थी, परंतु अपने को धीरे-धीरे दलीपनगर की रानी समझने लगी थी और राजा देवीसिंह के सब प्रकार के शत्रुओं के प्रति उसके जी में घृणा उत्पन्न हो गई थी। यदि दाँगी राजाने बिलकल'नाही' कर दी होती, अथवा स्पष्ट रूप से पूरी सहायता देने का वचन दिया होता, तो वह भयभीत भले
ही बनी रहती कित. उस अवस्था में घणा का भयंकर भाव उदय न होता।

सबदलसिंह के यहाँ से लौट आने पर गोमती की इच्छा कुंजरकोदोखोटी बातें सनाने को हुई, परंतु मन में उसके यथेष्ट रूप को निश्चय और परिमित न कर पायी।

नरपतिसिंह साफ तौर पर उसे देवीसिंह के द्रोही का पक्षपाती जान पड़ता था। कुमुद देवी का अवतार या देवी की अद्वितीय पुजारिन होने पर भी लड़की तो नरपति की थी। गोमती को रोष हुआ, कष्ट हुआ; परंतु उसने नरपति के उस अनधिकार कृत्य पर उत्पन्न हुए अपने उदंड रोष को कुमुद के सामने प्रकट न करने का निश्चय कर लिया। भीतर ही भीतर असंतोष और ग्लानि बढ़ने लगी और किसी सुपात्र के सम्मुख प्रकट न कर पाने के निषेध और वचन के कारण हृदय जलने लगा।

इसी समय उस मंदिर में एक व्यक्ति और आया। गोमती को उसके पुष्ट, भरे हुए चेहरे पर सतर्कता के चिह्न मालूम हुए, परंतु इससे अधिक वह उस समय और कुछ न देख सकी, क्योंकि उसने जरा आँख गड़ाकर गोमती की ओर देखा था। वह व्यक्ति रामदयाल था।


रामदयाल ने बहुत थोड़ी देर के लिए कुमुद को पालर में देखा था, गोमती को उसने देखा न था। इसलिए पहले उसकी धारणा हुई कि यही पुजारिन कुमुद है। गोमती भी सौंदर्यपूर्ण यवती थी। रामदयाल को उसके नेत्र अवश्य बहुत मादक जान पड़े।

जरा सिर झुकाकर गोमती से नीची आँखें किए हुए ही बोला, 'दूर से दर्शन करने आया हूँ।'
'कहाँ से?' गोमती ने बिना सोचे-समझे पूछा। 'दलीपनगर से।' तुरंत उत्तर मिला।

गोमती के मन में कुछ और पूछने की प्रबल इच्छा हुई; परंतु उसने एक ओर कुमुद को देखा। संकोच हुआ। दूसरी ओर जाने लगी। सोचा-यह आदमी शीघ्र यहाँ से नहीं जाएगा। यदि यह कुंजरसिंह के पक्ष का या राजा के किसी वैरी का आदमी नहीं है, तो अवश्य इससे पता लगेगा।

रामदयाल ने कुमुद को देखा था। गोमती को हाथ के संकेत से रोकता हुआ-सा बोला, 'मैं दूर से दर्शन करने आया हूँ, क्या इस समय दर्शन हो जाएँगे?'
'मैं पूछकर बतलाती हूँ।' गोमती ने उत्तर दिया।

रामदयाल ने प्रश्न किया, 'किससे?' गोमती बोली, 'यदि तुम्हें इस समय दर्शन न हों, तो सवेरे तो हो ही जाएंगे।'
उसने कहा, 'मैं तो दर्शनों के लिए चार दिन तक पड़ा रह सकता हूँ। आप-' बड़ी नम्रता और विनय का नाट्य करता हुआ रामदयाल रुक गया।
'क्या कहना चाहते हो, कहो?' गोमती ने वार्तालाप करने की इच्छा से पूछा।

'आप ही तो हम भूले-भटकों और भवसागर के कष्ट-पीड़ितों की बात को दूर तक पहुँचाती हैं। आपको किससे पूछना पड़ेगा?'
गोमती ने कहा, 'मैं वह नहीं हूँ।'

रामदयाल ने सिर जरा ऊँचा करके पूछा, तब वह कहाँ हैं? आप कौन हैं?'

'वह यहीं पर हैं और मैं दलीनगर के... की....' आगे गोमती से कुछ कहते न बन पड़ा। मुख पर लज्जा का रंग दौड़ आया। द्रुत गति से वह जहाँ कुमुद थी, वहाँ चली गई। रामदयाल उस ओर देखने लगा। कुमुद कोठरी से निकलकर एक-दो कदम आँगन में आई। पीछे-पीछे गोमती थी।

कुमुद के दिव्य सौंदर्य की एक झलक रामदयाल ने पालर में देखी थी। यद्यपि उसके स्मृति-पटल पर उस सौंदर्य के यथार्थ रूप की रेखाएँ अंकित न थीं, परंतु यह धुंधला स्मरण था कि विचित्र सौंदर्य है। देखते ही पालर का स्मरण जाग पड़ा और उसने समझ लिया कि जिस युवती से पहले संभाषण हुआ था, वह कुमुद नहीं है।
तब वह कौन थी?

रामदयाल के मन में यह प्रश्न उठा, परंतु उस समय इसकी विवेचना के लिए रामदयाल को आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। वह कुछ स्त्रियों के स्वभाव से परिचित था। उसने सोचा, थोड़ी देर में उसका परिचय भी मिल जाएगा।

कुमुद से विनयपूर्वक कहा, 'दूर से आया हूँ। क्या इस समय दर्शन हो जाएंगे? यदि न हो सकें तो सवेरे तक के लिए ठहर जाऊँगा और फिर कदाचित् एक अनुष्ठान के लिए यहाँ कई रोज ठहरना पड़ेगा।'

कुमुद बोली, 'दर्शन इस समय भी हो सकते हैं, परंतु यदि तुम सवेरे तक के लिए ठहर सकते हो, तो प्रातःकाल का समय सबसे अच्छा है।'

'बहुत अच्छा।' रामदयाल ने कहा, 'मैं तब यहीं कहीं या किसी पेड़ के नीचे ठहर जाऊँगा।' उसने अंतिम बात को प्रस्ताव के रूप में कहा।

'हमारी कोई हानि नहीं।' कुमुद बोली, 'चाहे जहाँ ठहर जाओ; मंदिर है। तुम कौन हो?'

उसने उत्तर दिया, 'मैं दलीपनगर का रहनेवाला हूँ। महलों से मेरा संबंध रहा है। तीर्थयात्रा और एक विशेष अनुष्ठान के लिए यहाँ आया हूँ।'
गोमती ने कुमुद के कान में पीछे से कुछ कहा। उस पर विशेष ध्यान न देकर कुमुद बोली, 'मंदिर में तो कोई खास स्थान ठहरने के लिए है नहीं। यह दालान खाली है। चाहो तो इसमें पड़ रहना। यदि बाहर ठहरने की इच्छा हो तो वैसा कर सकते हो।'

गोमती किसी आग्रह की दृष्टि से रामदयाल की ओर कुमुद के पीछे से देख रही थी। रामदयाल ने कहा, 'मैं दालान में ही ठहर जाऊँगा। बाहर अकेले जरा बुरा मालूम पड़ेगा।'

इसके बाद वे दोनों लड़कियाँ मंदिर के एक दूसरे भाग में चली गईं।

वहाँ जाकर कुमुद ने गोमती से कहा, 'तुम्हें कभी-कभी बड़ी उतावती हो जाती है। इस समय उस हारे-थके आदमी से दलीपनगर के विषय में कुछ नहीं पूछना चाहिए। फिर किसी समय देख लेना।'

'मैं पूछ लूँ उससे किसी समय!'

'पूछ लेना। मुझे उसमें कोई आपत्ति नहीं।'

उधर रामदयाल ने दालान के एक अँधेरे से कोने में अपना डेरा लगा लिया। उस समय मंदिर में नरपतिसिंह नहीं था। परंतु कुंजरसिंह अपनी कोठरी में था।

उसने रामदयाल के कंठ को पहचान लियाः सन्नाटे में आकर अपनी कोठरी में ही बैठा रहा। थोड़ी देर में अपने को सँभालकर बाहर निकला। उस समय रामदयाल दालान के उस कोने में अपना डेरा लगा रहा था। पहचान लिया। रामदयाल नहीं देख पाया। कुंजर अपनी कोठरी में लौट आया।

संध्या के उपरांत-जब बेतवा की अस्पष्ट कल्लोल के साथ-साथ पश्चिम तटवर्ती विराटा ग्राम से लोगों की आहट आरही थी और देवी के मंदिर में कुंजर और नरपति देवी की आरती की तैयारी में लगे हुए थे-गोमती किसी काम के करने की इच्छा से आँगन में आई, परंतु किसी काम को सामने न पाकर वहाँ बैठ गई, जहाँ से रामदयाल का डेरा पास पड़ता था। रामदयाल की ओर न देखती हुई बोली, 'दलीपनगर का कोई और विशेष समाचार नहीं है?' बात कोमलता का प्रयत्न करके कही गई थी और रामदयाल को कोमल जान भी पड़ी, परंतु उस पर अधिकार की छाप थी। यह रामदयाल की परख में न आई।

उसने अपने आसन से जरा-सा खिसककर उत्तर दिया, 'विशेष समाचार तो कुछ नहीं है। राजा सैन्य-संग्रह में लगे हुए हैं। उन्हें और किसी बात की धुन नहीं है।'
'सुना है पालर की किसी लड़ाई में बहुत घायल हो गए थे?'

'हाँ, बहुत, बाल-बाल बचे।' 'अब अच्छी तरह हैं?' 'हाँ, अब अच्छी तरह हैं। बहुत दिन हुए, तब चोट लगी थी। तब से तो वह कई लड़ाइयाँ लड़ चुके हैं, उस चोट की अब उन्हें याद भी न होगी।'

'दलीपनगर की सेना में एक लंबा, कठोर, कठिन आदमी था। वह मर गया या महाराज की सेवा में है?'

'उन्हीं की सेवा में है। आपको पालर की घटना कैसे मालूम है?'

जरा अधिकार-व्यंजक स्वर में गोमती बोली, 'मैंने पालर में उस व्यक्ति को देखा था। राजा ने उस पाषाण हृदय को कैसे अपनी सेवा में फिर रख लिया?'

रामदयाल के मन में गोमती का कुछ अधिक परिचय प्राप्त करने की अभिलाषा उत्पन्न हुई।

बोला, 'आप दलीपनगर में किस की बेटी हैं?'

'मैं दलीपनगर में किसी की बेटी नहीं हूँ।'

'परंतु दलीपनगर में आपका कोई न कोई तो अवश्य है। आपने ही थोड़ी देर पहले बतलाया था।'

गोमती जरा गर्वपूर्ण स्वर में बोली, 'पहले तुम यह बताओ कि राजा से तुम्हारा कोई संबंध है या नहीं?'

'है, और नहीं है।' रामदयाल ने उत्तर दिया। 'राजा अपने सेवकों की सेवाओं का कैसा पुरस्कार देते हैं?' 'जैसा उनके मन में आता है। दानी हैं।'

गोमती ने धीरे से, परंतु स्पष्ट कोमलता के साथ, किंतु अधिकारयुक्त स्वर में कहा, 'तुम्हें मुँह माँगा पुरस्कार मिलेगा।'

रामदयाल सावधान हुआ। जरा और आगे खिसका। गोमती से बोला, 'मेरे योग्य जो सेवा होगी, अवश्य करूंगा।'

'यहाँ कुंजरसिंह का सेनापति ठहरा हुआ है। गोमती ने भी धीरे से कहा, 'वह राजा के विरुद्ध कुछ कार्य कर रहा है। तुम पता लगाकर राजा की सहायता करो।'

'कहाँ ठहरा हुआ है?'

'इसी मंदिर में।'

'कब से?'

'हाल ही में आया है।'

'किस प्रयोजन से?'

'विराटा के राजा से महाराजा के विरुद्ध सहायता की याचना करने के लिए। इससे अधिक मुझसे कुछ न पूछो, क्योंकि मैं नहीं जानती। तुम्हें राज का सेवक समझकर मैंने बतलाया है।' 


रामदयाल कुछ क्षण तक सोचता रहा।

'आप कौन हैं?' रामदयाल ने एकाएक पूछा।

'मैं दलीपनगर के राजा की, गोमती ने शीघ्र उत्तर दिया, 'रानी हूँ।'

रामदयाल ने तुरंत खड़े होकर मुजरा किया। खड़ा रहा। गोमती मन-ही-मन प्रसन्न हुई। बैठने का संकेत किया। वह बैठ गया।

रामदयाल ने विनीत भाव से कहा, 'उस दिन महाराज की जो बारात पालर को आ रही थी, परंतु बीच में ही युद्ध हो पड़ा। क्या?'

गोमती ने अभिमान के साथ उत्तर दिया, 'हाँ, मैं वहीं हूँ। मुझे इस बात का बड़ा दुख रहा करता है कि इस चिंतापूर्ण समय में महाराज का कुशल-समाचार मुझे बहुत कम मिल पाता है।'

'वह समाचार मैं कभी-कभी आपको दिया करूँगा।' रामदयाल ने प्रस्ताव किया।

गोमती बोली, 'महाराज के स्वामिभक्त सेवक का नाम तो मुझे मालूम हो।'

'मेरा नाम।'

रामदयाल ने बतलाया, रामदयाल है। मैं बड़ी कठिनाइयों में हूँ और बड़े कठिन कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ। आपने शायद सुना होगा कि मृत राजा की दो रानियाँ थीं। मैं उनकी सेवा में था। वे बागी हो गईं। जासूस बनकर मुझे कभी एक के पास, कभी दसरी के पास और कभी दोनों के पास रहना पड़ा। बड़ा नाजुक काम है। भेद खुलने पर पूरी विपद की आशंका है। इस समय भी उन रानियों की जासूसी के लिए दलीपनगर के बाहर हुआ हूँ।'

'रानियाँ कहाँ हैं?'

'वे दलीपनगर से बाहर हैं, तभी तो मैं बाहर हूँ। उनका ठीक-ठीक पता मालूम होने पर बतलाऊँगा। एक प्रार्थना है।'

'क्या?'

'कोई बात कहीं प्रकट न हो, अन्यथा महाराज के हित की हानि होगी।'

'कभी किसी प्रकार न हो सकेगी।'

'इस प्रकार मैं कभी-कभी आना-जाना चाहता हूँ। आपकी बात से मुझे एक और काम का पता लग गया।'

गोमती बोली, 'ठहर तो यहाँ सकोगे, परंतु शायद बाहर रहना पड़ेगा। पुजारिन के पिता नरपति कुंजरसिंह के पक्ष में मालूम होते हैं। उन्हें अपने पक्ष में करने का प्रयत्न करना चाहिए।'

'वह सब मैं धीरे-धीरे देखूगा।' रामदयाल बोला, 'चढ़ौती के विषय में यहाँ क्या नियम है?'


'कोई विशेष नियम नहीं है। परंतु कुंजरसिंह ने उस बार पालर में एक बहुमूल्य आभूषण नरपति को भेंट किया था, इसलिए शायद वह कुंजरसिंह के नाम का पक्ष करते हैं। कुमुद अवश्य बहुत धीर, शांत, तेजस्विनी हैं। उनमें अवश्य देवी का अंश है।'

'मेरे लिए तो।' रामदयाल ने स्वर में सचाई की खनक पैदा करके कहा, 'संसार-भर की सब स्त्रियों में सबसे अधिक मान्य आप हैं।'

अंधकार में रामदयाल ने नहीं देखा। परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि उसके गालों पर मंतव्य के प्रकट होने पर गहरी लाली छा गई। इतने में देवी की आरती के लिए गोमती को कुमुद ने पुकार लिया।

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