ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
: ५३ :
दूसरे दिन सवेरे रामदयाल दर्शनों के लिए मूर्ति के सामने पहुँचा। कुमुद मूर्ति के पास बैठी हुई थी और नरपति उससे जरा हटकर। रामदयाल ने बड़ी श्रद्धा दिखलाते हुए मूर्ति पर जल चढ़ाया और बेले के फूल अर्पण किए। उसने कपड़े की ओर कुछ निकालने के लिए हाथ बढ़ाया। नरपति ने एक बार उस ओर देखकर दूसरी ओर मुँह कर लिया। इतने में कुंजरसिंह भी आ गया। कुमुद की आँखें मूर्ति की ओर देखने लगीं। रामदयाल ने बगल से कुंजरसिंह को देखा, फिर मुड़कर। पहचानने में संदेह न रहा। एक क्षण के लिए सकपका-सा गया। गोमती पास थी। उसने रामदयाल का यह शारीरिक व्यापार ताड़ लिया। उसे वह बहुत स्वाभाविक जान पड़ा और रामदयाल के प्रति सहानुभूति और कुंजरसिंह के प्रति घृणा का भाव कुछ और गहरा हो गया। रामदयाल ने अपने को संयत कर लिया। कपड़ों में से सोने का बहुमूल्य गहना निकालकर मूर्ति के चरणों में चढ़ा दिया।
नरपति विस्फारित लोचनों से इस व्यापार को देखने लगा। गहना अपने हाथ में उठाकर नरपति ने कहा, 'आप कहाँके, कौन हैं?'
'मैं दलीपनगर का हूँ।' रामदयाल ने उत्तर दिया, 'इससे अधिक कुछ और बतलाना मेरे लिए इस समय असंभव है। आफत में हूँ। दुर्गा के दर्शनों से आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आया हूँ। मेरी प्रार्थना है कि मेरे स्वामी का भला हो।'
गोमती ने उसी समय आँखें मूँदकर रामदयाल की प्रार्थना स्वीकार की जाने के लिए देवी से प्रार्थना की और बड़े अनुनय की दृष्टि से कुमुद की ओर देखा।
नरपति बोला, 'आपके स्वामी का कल्याण होगा।' गोमती किसी उमड़े हुए भाव के वेग को सहन न कर सकने के कारण बोली, 'जीजी के मुख से यह आशीर्वाद और अच्छा मालूम होगा।'
कुमुद कुछ नहीं बोली।
नरपति ने तुरंत कहा, 'दुर्गा का प्रसाद इन्हें दिया जाए-फूल और भस्म।' कुमुद ने भस्म उठाकर रामदयाल को दे दी। पुष्प नहीं दिया। गोमती के हृदय को बड़ी पीड़ा हुई। नरपति बोला, 'यदि उचित समझा जाए, तो पुष्प भी दे दिया जाए। यह दुर्गा के अच्छे सेवक जान पड़ते हैं।'
कुमुद मूर्ति को प्रणाम करके वहाँ देर के दूसरे भाग में धीरे से चली गई। गोमती ने कुमुद के नेत्रों में इतनी अवज्ञा पहले कभी नहीं देखी थी।
बड़ी कठिनाई से गोमती ने नरपति से कहा, 'इन्होंने क्या कोई अपराध किया है?'
उदास स्वर में नरपति बोला, 'कोई अपराध नहीं किया और न देवी इनसे रुष्ट हैं। रुष्ट होतीं, तो भस्म का प्रसाद क्यों देती? जान पड़ता है, अभी इनके कार्य में कुछ विलंब है, इसलिए पुष्प-प्रसाद नहीं मिला।'
'तब इनके यहाँ थोड़े दिनों ठहरे रहने में आपकी कोई हानि तो होगी नहीं?' गोमती ने कहा।
नरपति ने उत्तर दिया, 'जरा भी नहीं। चैन से ठहरे रहें। एक दिन ऐसा अवसर अवश्य
आएगा, जब देवी प्रसन्न होकर मनचाहा वरदान भी देंगी।'
रामदयाल कुंजरसिंह को देखकर सकपकाया था, परंतु इस घटना से विचलित नहीं जान
पड़ा। मुसकराकर बोला, 'एक दिन उसकी कृपा अवश्य होगी और मेरा तथा मेरे स्वामी
का अवश्य कल्याण होगा।'
'अवश्य।' नरपति बोला।
'अवश्य।' रामदयाल ने कहा।
नरपति ने रामदयाल से कहा, 'आप यहाँ जब तक मन चाहे, बने रहिए, अर्थात् जब तक
आपको अभीष्ट आशीर्वाद न मिल जाए।'
इसके बाद रामदयाल वहाँ से उठकर मंदिर के बाहर गया। कुंजरसिंह उसके
पीछे-पीछे।
जब दोनों अकेले रह गए, कुंजरसिंह ने धीमे स्वर में, परंतु तीखेपन के साथ कहा,
' 'यहाँ किसलिए आए हो?'
'दर्शनों के लिए।'
'तुम्हें ये लोग जानते नहीं हैं?'
'जानते हैं।'
'ये लोग यह जानते हैं कि तुम्हारा नाम रामदयाल है और किस तरह के मनुष्य हो?'
'मैंने उन्हें स्वयं बतला दिया है।'
'तुम यहाँ से चले जाओ।' क्रोध के मारे कुंजरसिंह काँपने लगा।
रामदयाल ठंडक के साथ बोला, 'राजा, गुस्से से काम न चलेगा। मैंने अपना परिचय इन लोगों को दे दिया है, परंतु आप यहाँ नाम और काम दोनों की दृष्टि से छिपे हुए हैं। आपका भेद खुलने से मेरी कोई हानि न होगी। राजा देवीसिंह के आदमी आपके लिए धूम रहे हैं। कालपी का नवाब, जो भांडेर में यहाँ से पास ही ठहरा हुआ है, आपसे शायद बहुत संतुष्ट नहीं है। रानियों की आपसे पटती नहीं। रियासत के सरदार आप लोगों के झगड़ों से अपने को बचाए हुए हैं। लोचनसिंह अभी जीवित है और मैंने कभी आपका कोई बिगाड़ नहीं किया, फिर न जाने राजा मुझसे क्यों रुष्ट हैं।'
कुंजरसिंह ने एक क्षण के लिए कुछ सोचा। बोला, 'जानता हूँ, तुम घोर नास्तिक
हो। तुम केवल दर्शनों के लिए यहाँ कदापि नहीं आए हो। बोलो, काहे के लिए आए
हो?'
'आप जानते हैं।'
रामदयाल ने बनावटी विनय के साथ उत्तर दिया, 'मैं और कुछ नहीं, तो
स्वामिधर्मी तो अवश्य हूँ। मेरे स्वामी का विश्वास इस स्थान पर है। इसीलिए
आया हूँ।'
कुंजरसिंह जिस बात का संदेह रामदयाल पर कर रहा था, उसे प्रकट करना उचित नहीं समझा, परंतु भर्त्सना करने की प्रबल इच्छा जान पड़ी थी और भर्त्सना नहीं कर पाई थी, इसलिए रामदयाल का गला घोंट डालने का भाव तो मन में उठा, परंतु जीभ या हाथ ने कोई तैयारी नहीं दिखाई।
रामदयाल कनखियों से देखकर धीरे से बोला, 'यदि राजा क्षमा करें, तो एक बात कहूँ?'
कुंजरसिंह ने मुंह से कुछ न कहकर फिर से हाँ का संकेत किया।
रामदयाल ने कहा, 'इस बार दोनों रानियाँ देवीसिंह के विरुद्ध हैं। दोनों दलीपनगर छोड़कर चली आई हैं। आप उनके साथ अपनी शक्ति सम्मिलित कर दें और कालपी के नवाब के साथ घृणा न करें तो दलीपनगर का सिंहासन आपके पाँव-तले शीघ्र आ जाएगा।'
'मैं सदा, रानियों के सम्मान का ध्यान रखता आया हूँ परंतु अनुचित कार्यों का
सहायक नहीं को सका। कालपी के नवाब के ऊपर भी कोई है, जानते हो?'
'हाँ, राजा। दिल्ली है। परंतु वहाँ किसी की कोई कुछ भी सुननेवाला नहीं मालूम
पड़ता, ऐसा मैं आप ही लोगों से सुना करता हूँ।'
'खैर, देखा जाएगा, परंतु मैं एक बात से तुम्हें सावधान करना चाहता हूँ।'
'वह क्या राजा?'
'तुमने जिसके प्रति अपना अशुद्ध प्रयत्न पालर में किया था, उनसे दूर रहना-बहुत दूर। नहीं तो मैं सिंहासन प्राप्ति की अभिलाषा को एक ओर रख दूंगा और तुम्हें उस प्रयत्न के किये पर पछताने को भी समय न मिलने पायेगा।'
कुंजरसिंह ने अंतिम बात बड़े जोश के साथ कही थी। रामदयाल हँसा। वह हँसी
कुंजर के मन में छुरी की तरह चुभ गई।
रामदयाल बोला, 'राजा, यदि मैंने कुछ किया था, तो अपने मालिक की आज्ञा से। जो
कुछ करूँगा, अब अपने स्वामी की भलाई के लिए। परंतु यह मैं वचन देता हूँ कि
आपका मार्ग लाँघने की चेष्टा न करूंगा। यदि आप मेरी प्रार्थना स्वीकार करें,
तो मैं यही विनती करूँगा कि यहाँ न पड़े रहकर आप राज्य-प्राप्ति का कुछ और भी
उपाय करें। पूजार्चा तो उन लोगों के लिए है, जो हथियार का भरोसा कम करते हैं
और अन्य बातों का अधिक।'
सुनकर कुंजर विकल हो गया। बोला, 'मैं तुम्हें स्वामिद्रोही नहीं कहता। परंतु तुम नीच अवश्य हो।'
'यह तो राजा लोगों का कायदा ही है।' रामदयाल ने कुटिल मुसकराहट के साथ कहा, 'काम निकल जाने पर नौकरों को धता बता देते हैं। गरीब तो सदा से ही दोषी चला आया है और अनंत काल से नीच।'
'मैं पूछता हूँ, तुम उस लड़की से कल शाम को क्या घुल-घुलकर बातें कर रहे थे?' कुंजर ने एकाएक पूछा।
प्रश्न के आकस्मिक वेग से बिलकुल विचलित न होकर रामदयाल ने उत्तर दिया, 'पुजारिन से तो मेरी कोई बातचीत नहीं हुई।'
'वह नहीं।' कुंजर जी कड़ा करके बोला, 'तुम उस दूसरी लड़की से घुल-घुलकर क्या
बातें करते थे?'
'वह कौन है, आप जानते हैं?' रामदयाल ने दृढ़तापूर्वक पूछा। कुंजरसिंह ने
अवहेलना की दृष्टि से उसकी ओर देखा।
रामदयाल ने कहा, 'वह राजा देवीसिंह की रानी है।' कुंजरसिंह सन्नाटे में आ
गया। एक कदम पीछे हट गया, बोला, 'झूठ, असंभव?'
कोई उत्तर न देकर रामदयाल फिर मंदिर में चला गया।
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