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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...

:५४:

रामदयाल को मंदिर में घुसते हुए नरपति मिला। वह कहीं बाहर जा रहा था। कुंजरसिंह रामदयाल के पीछे-पीछे नहीं आया था। कानाफूसी-सी करते हए नरपति बोला, 'यहाँ के राजा से कुछ काम हो, तो मेरे साथ चलो।'
रामदयाल बोला,'अभी तो नहीं, किसी और समय चलूँगा। एकाध दिन यहाँ रहकर मैं काम से बाहर जाऊँगा। लौटकर फिर विनती करूँगा।'
नरपति चला गया।

कुमुद वहाँ दिखाई नहीं पड़ी। गोमती को एकांत में देखकर रामदयाल ने एक ओर बुलाने का सम्मानपूर्वक संकेत किया। वह आ गई। __रामदयाल ने कहा, 'जिसे आपने कुंजरसिंह का सेनापति समझ रखा था, वह सेनापति नहीं है।'
'तब कौन है?' गोमती ने जरा चिंतित होकर पूछा। 'स्वयं कुंजरसिंह।'

गोमती चौंकी। रामदयाल ने निवारण करते हुए कहा, 'आप आश्चर्य न करें, वह महाराज को हानि पहुँचाने के लिए तरह-तरह के उपायों की रचना में सदा व्यस्त रहते हैं। परंतु मैं इसका उपाय करूँगा, आप चिंतित न हों। केवल एक भीख माँगता हूँ।'

स्नेहपूर्वक गोमती बोली, 'क्या चाहते हो रामदयाल?' 'आप इस भेद को कदापि किसी के सामने प्रकट न करें।' रामदयाल ने प्रस्ताव किया, 'मेरी अनुपस्थिति में यहाँ जो कुछ हो, उस पर अपनी दृष्टि रखें और मेरे ऊपर विश्वास। मैं एक-आध रोज के लिए बाहर जाऊँगा। वहाँ से लौटकर अपनी और योजनाएँ बतलाऊँगा। जैसा कुछ उस समय निश्चय हो, उसके अनुसार फिर काम करें।'

गोमती ने सरलतापूर्वक कहा, 'मैं तो कुछ न कुछ करने के लिए बहुत दिनों से बेचैन हो रही हूँ, परंतु यह ठीक-ठीक समझ में नहीं आता था कि क्या करूँ। महाराज के पास शीघ्र जाओगे न?'

'अवश्य।' 'उन्हें हमारा यहाँ का रहना मालूम है?' 'नहीं मालूम है, परंतु अब मालूम हो जाएगा। मेरी अभिलाषा है, कभी वह यहाँ न आवें, और न आप वहाँ जाएँ।'

अभिमानपूर्वक गोमती बोली, 'जब तक वह स्वयं यहाँ नहीं आएँगे, मैं दलीपनगर नहीं जाऊँगी।'

रामदयाल नम्रतापूर्ण स्वर में बोला, 'यह तो उचित ही है, परंतु इस समय सरकार यह आशा न करें और न मुझे ही आज्ञा दें कि महाराज यहाँ आयें।'
'नहीं, मैं ऐसा क्यों करने चली? क्या यहाँ आने से उनके किसी अनिष्ट की संभावना है?

'बहुत बड़ी। कालपी का नवाब उनका परम शत्रु है। कुंजरसिंह उनका प्रतिद्वंद्वी इस मंदिर में है, मृत राजा की रानियाँ उनके विरुद्ध खड्गहस्त होकर विचरण कर रही हैं। ऐसी हालत में उनका अकेले-दुकेले इस स्थान में आना बड़ा संकटपूर्ण होगा। और ससैन्य वह अभी आ नहीं सकते। मैं स्वयं रानियों का आदमी बनकर घूम रहा हूँ। मुझे लोग महाराज का सेवक नहीं समझते।'

गोमती ने प्रसन्न होकर कहा, 'तुम बड़े चतुर मनुष्य जान पड़ते हो, रामदयाल। धन्य हैं महाराज,जिनका ऐसा दक्ष और पुरुषार्थी सेवक हो। तुम कब तक यहाँ रहोगे?' .
रामदयाल ने उत्तर दिया, 'एक-आध दिन और हैं। जरा यहाँ के राजा को कुंजर के पक्ष से विमुख कर लूँ, या कम-से-कम उत्साहरहित कर दें, तब दूसरा काम देखूँ।'


यह कहकर रामदयाल एकटक गोमती की ओर देखने लगा मानो कुछ कहना चाहता हो और कहने के लिए या तो शब्द न मिलते हों, अथवा हिम्मत न पड़ती हो।
गोमती बोली, 'क्या कहते हो, कहो।'

'कहते डर लगता है।' रामदयाल बोला।

'कहो, कहो।' गोमती प्रोत्साहन देते हुए बोली। 'आपका इन पुजारिन के विषय में क्या विश्वास है?' उसने पूछा।
गोमती ने उत्तर दिया, 'बहुत शुद्ध हैं। दुर्गा से उनका संपर्क है। लोग उन्हें देवी का अवतार समझते हैं।'

'यह सब ठीक है।' रामदयाल आँखें नीची करके बोला, परंतु मेरी यह प्रार्थना है कि आप जरा यह अच्छी तरह से देखती रहें कि कुंजरसिंह का वह कितना पक्ष करती हैं और क्यों करती हैं? आपको स्मरण होगा कि उन्होंने मुझे स्वामी की सफलता के लिए पूरा आशीर्वाद नहीं दिया।'

कुछ सोचकर गोमती ने कहा, 'मुझे खूब याद है। उन्होंने एक बार आशीर्वाद दे दिया है। दूसरी बार आशीर्वाद फिर भी दे देंगी। क्या वह तुम्हें पहचानती हैं?'

'नहीं, वह मुझे नहीं जानतीं। रामदयाल ने उत्तर दिया, परंतु मुझे विश्वास है कि वह कुंजरसिंह को पहचानती हैं। उन्होंने यह समझकर मुझे पूरा आशीर्वाद नहीं दिया कि कहीं कुंजरसिंह के विरुद्ध न जा पड़े।'

गोमती गंभीर चिंतन करने लगी। रामदयाल बोला, 'मैं केवल यह विनती करता हूँ कि आप सावधानी के साथ वस्तुस्थिति का निरीक्षण करती रहें। इस बात का भय न करें कि यह देवी का अवतार हैं-'
'कहो; कहो, और क्या कहते हो, मैं भय किसी का नहीं करती।' गोमती ने आग्रहपूर्वक कहा।

वह बोला, 'मेरा यह विश्वास है कि इस कलयुग में अवतार नहीं होता। मैं आपसे केवल इतना अनुरोध करता हूँ कि आप खूब देख-भाल करती रहें।'

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