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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...

:५५:

इसी समय बाहर से कुंजर आकर अपनी कोठरी में चला गया। कुंजरसिंह को जितनी बेचैनी उस दिन हुई, उतनी लोचनसिंह के मुकाबले में सिंहगढ़ छोड़ने के लिए विवश होने पर भी नहीं हुई थी। उसे भय हुआ कि रामदयाल कुमुद को किसी षड्यंत्र में फंसाने और स्वयं उसे किसी विपद् के कुचक्र में डालने की चिंता में है। उसने कुमुद से उसी दिन अकेले में कुछ कहने का निश्चय किया।

कई बार निराला पाने की कोशिश की, परंतु कभी गोमती को उसके पास पाया और कभी किसी दर्शन करनेवाले को। कुमुद ने भी उसकी विचलित अवस्था को एक-आध बार देखा और उसने यह भी देखा कि उसकी दृष्टि में कुछ अधिक तत्परता, कुछ अधिक आग्रह है। गोमती ने भी उसे बिना किसी उद्देश्य के इधर-उधर भटकते हुए देखा और वह सावधानी के साथ उनके विषय में विचार करने लगी। कुंजर ने सोचा-यह स्त्री मेरी ओर आँख गड़ाकर क्यों देखती है? क्या रामदयाल ने अपने कुचक्र में इसे भी शामिल किया है?

अंत में कुंजरसिंह को दोपहर के लगभग एक अवसर हाथ लगा। गोमती रसोई बनाने के लिए एक कोठरी में चली गई। दूसरी में नरपति को कुमुद भोजन कराने लगी। रामदयाल मंदिर के एक कोने में मुँह पर चादर ढाँपे पड़ा था। कुंजरसिंह मंदिर के आँगन में जाकर ऐसी जगह खड़ा हो गया, जहाँ नरपति उसे नहीं देख सकता था, केवल कुमुद देख सकती थी, परंतु कुमुद ने उसकी ओर देखा नहीं। जब धूप में खड़े-खड़े कुमुद की ओर टकटकी लगाए कुंजर को कई पल बीत गए, तब उसने धीरे-से पैर की आहट की।

कुमुद ने देखा। उधर रामदयाल ने भी चादर को जरा सा खिसकाकर देखा। कुंजर ने कुमुद को हाथ जोड़कर सिर से बुलाने का संकेत किया। देखकर भी वह कुछ समय तक वहीं बैठी रही। जलती धूप में कुंजर वहीं खड़ा रहा।

यथेष्ठ से कुछ अधिक भोजन-सामग्री नरपति के सामने रखकर कुमुद ने पिता से कहा, 'मैं अभी आती हूँ।'

कभी-कभी सनक के साथ काम करने का कुमुद को अभ्यास पड़ गया था। उसका पिता इस गुण में किसी देवी व्यापार का लक्ष्य समझा करता था। इसलिए उसने कुमुद से कोई पूछताछ नहीं की।

आँगन में प्रवेश करते ही कुमुद ने चारों ओर आँख डाली। गोमती वहाँ न थी, मंदिर की बगलवाली छोटी-सी दलान में रामदयाल चादर से मुँह ढके पड़ा था। वहाँ और कोई न था।
कुंजरसिंह ने मंदिर के बाहर चलने का इशारा करते हुए दरवाजे की ओर कदम बढ़ाया। कुमुद भीतर जाकर देवालय की चौखट पर जा बैठी। कुंजर लौटकर वहीं जा पहुँचा। नीचे बैठ गया। कुमुद भी चौखट से उतरकर नीचे बैठने को जरा हिली, परंतु फिर जहाँ-की-तहाँ बैठी रही। उस स्थान से जहाँ रामदयाल लेटा था, ओट थी।
'क्या है?' बहुत बारीक स्वर में निस्संकोच भाव से कुमुद ने पूछा। 'क्या कहूँ, बहुत दिनों से, बड़ी देर से कहना चाहता था।' कुंजर बोला, 'आप मेरी ढिठाई क्षमा करेंगी।'
'कहिए।' कुमुद ने कहा, 'ऐसी क्या बात है जो आप अकेले में कहना चाहते हैं?' प्रश्न की हिम-तुल्य ठंडक से कुंजर सिकुड़-सा गया।


बोला, 'आप मुझे नहीं जानती हैं, न जानने की आवश्यकता है और न कभी जान सकेंगी, क्योंकि कभी फिर इस जीवन में आपके दर्शन होंगे, इसमें पूर्ण संदेह है।'
कुमुद का होंठ कुछ कहने के लिए जरा-सा हिला, परंतु बोली नहीं। उत्सुकता के साथ कुंजर की ओर देखने लगी।

उसने कहा, 'मैं दलीपनगर का एक अभागा हूँ। एक दिन-उस दिन, जब संक्रांति का स्नान करने दलीपनगर के महाराज पालर आए थे, मैंने मंदिर में दर्शन किए थे। उस समय यह लड़की आपके साथ न थी।'
'मैं आपको जानती हूँ।' आँखें बिना नीची किए हुए कुमुद ने कहा।
'मुझे?' कुंजर ने आश्चर्य प्रकट किया, 'मुझे आप जानती हैं।' फिर आश्चर्य संयत करके बोला, 'हाँ, किसी-किसी भक्त का कुछ स्मरण आपको रह सकता है, परंतु मैं कौन हूँ, यह आप न जानती होंगी।'
'जानती हूँ अथवा न भी जानती होऊँ, तो भी कोई हानि नहीं।' कुमुद ने अपनी साधारण मिठास के साथ कहा, 'आप अपनी बात तो कहिए।'
कुमुद की उँगली में अपनी हीरे की अंगूठी देखते हुए कुंजरसिंह बोला, 'इस अँगूठी ने मेरा नाम बताया होगा। एक दिन वह था और एक दिन आज है। आपकी कृपा बनी रहे।'
कुमुद ने अंगूठीवाले हाथ को जरा पीछे खींचकर कहा, 'मुझे पिताजी को परोसने के लिए जाना है। आपने किसलिए बुलाया था?'
'यहाँ कोई संकट उपस्थित होनेवाला है। कुंजरसिंह बोला, 'षड्यंत्र रचे जा रहे हैं। यह जो पुरुष कल यहाँ आया है, बड़ा भयंकर और नीच है। उस लड़की के साथ कुछ सलाह कर रहा था। आपकी रक्षा का कुछ उपाय होना चाहिए।'

नेत्र स्थिर करके कुमुद ने कहा, 'मेरे लिए किसी बात की चिंता न करनी चाहिए। दुर्गाजी की कृपा से मेरे ऊपर कोई संकट कभी नहीं आ सकता। यह लड़की मेरे गाँव की है। उस दिन जब पालर में युद्ध हुआ, इस लड़की का विवाह उस पुरुष के साथ होने जा रहा था, जो अब दलीपनगर का राजा है। वह अपने पति के लिए चिंतित रहा करती है, और कोई बात नहीं है।'

आनेवाले सकंट के विस्तार को छोटा समझे जाने के कारण कुंजरसिंह अधिक आग्रह के स्वर में बोला, 'मैंने दलीपनगर के सिंहासन की रक्षा में प्राणों के अतिरिक्त लगभग सभी कुछ त्यागा है। आशीर्वाद दिया जाए कि इन चरणों की रक्षा में उनका भी उत्सर्ग कर दें।'

किसी अन्य को दूसरे समय दिए गए एक वरदान का स्मरण करके कुमुद ने कहा, 'आपको ऐसी कोई चिंता न करनी चाहिए।' कुमुद ने विश्वासपूर्ण स्वर में बात कही,
परंतु उसमें किसी तरह की अवहेलना न थी।

कुंजरसिंह ने हाथ जोड़कर कहा, 'आशीर्वाद दीजिए कि इन चरणों के लिए ही जीवन धारण करूँ।'

कुमुद के मुख पर लालिमा छा गई। नेत्रों में निस्संकोचता का वह भाव न रहा। एक ओर आँखें करके बोली, 'आपकी बात मुझे विचित्र-सी जान पड़ती है। किसी तरह के कष्ट की कोई आशंका मुझे इस समय नहीं भास रही है। यदि कोई होगी, तो मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि रक्षा का उचित उपाय किया जाएगा।'
'मेरी यह अभिलाषा है कि उस उपाय में मैं भी हाथ बटाऊँ।'

'जब आवश्यकता होगी, आपसे कहने में निषेध न होगा।'

'मुझे मंत्र-दीक्षा दे दी जाए, तो मैं भी पूजार्चा में ही अपना संपूर्ण समय व्यतीत करूँ।'


'आप क्षत्रिय हैं और मैं ब्राह्मण नहीं हूँ।'

'परंतु आप देवी हैं और मैं देवी का उपासक।'

'आपको और तो कुछ नहीं कहना है? मैं पिताजी के पास जाती हूँ।'

उत्तर की प्रतीक्षा बिना किए ही कुमुद वहाँ से चली गई। जब तक वह रसोईघर में नहीं पहुंच गई, कुंजरसिंह सोने को लजानेवाले उसके पैरों को देखता रहा। उसे ऐसा जान पड़ा, जैसे उसकी नाड़ी में बिजली कौंध गई हो। जब वहाँ से चला, तब उसकी आँखों में तारे-से छिटक रहे थे। उस समय उसने यह नहीं देखा कि दालान में रामदयाल अपने स्थान पर न था।
 
उसी दिन रामदयाल ने अपनी गठरी-मुठरी बाँधकर जाने की तैयारी की। नरपति से कहा, 'कुछ दिनों के लिए बिदा मांगता हूँ।' 'परंतु लौटकर जल्द आना, दुर्गा का स्मरण करना।' नरपति ने अनुरोध किया।

कजरसिंह ने अपनी कोठरी से रामदयाल की बात सनकर जरा चैन की सांस ली।
रामदयाल ने जाने के पहले गोमती को अकेले में ले जाकर बातचीत की। बोला, 'आप एक बार कुमुद के सामने कुंजरसिंह का तो नाम लीजिए।'
'क्यों? वह उसे पहचानती हैं क्या?' गोमती ने पूछा।
'जान-पहचान से भी कुछ अधिक गहरा रंग है। मुझे भय है, शायद महाराज के खिलाफ वह भी कुंजरसिंह को कुछ मंत्रणा दें।'
'महाराज के खिलाफ! मैं इस बात से बहुत डरती हूँ। उनके पास दुर्गा की शक्ति है। इसमें तो रामदयाल, महाराज का बड़ा अनिष्ट होगा।'

'जरा भी न होगा।' रामदयाल ढिठाई के साथ बोला, 'मैंने आज कुंजरसिंह और कुमुद का संभाषण सुना है। दोनों पहले से एक-दूसरे को जानते हैं। आप महाराज की हित-कामना और कुंजरसिंह के अहित-चिंतन की बात कहें, तब आपको मालूम हो जाएगा कि वास्तव में इन दोनों में क्या संबंध है और तब आपको विश्वास हो जाएगा कि कुमुद देवी का अवतार-ववतार कुछ नहीं है।'

गोमती ने बात काटकर कहा,'ओह! अधिक कुछ मत कहो, इस विषय पर मैं जाँच-पड़ताल में लग रही हूँ।' फिर एक क्षण बाद बोली, 'यह संभाषण किस समय हुआ था?'
उत्तर मिला, आप जब रसोई बना रही थीं। ये हाथ और रसोई बनाने का वह कष्ट! हे भगवान!'


गोमती ने कहा, 'यह सब कुछ नहीं है रामदयाल। जब जैसा समय आवे, तब वैसा भुगत लेना चाहिए। तुम महाराज के पास जा रहे हो?'
'हाँ, अभी जा रहा हूँ।'

'महाराज तो दलीपनगर में ही होंगे?'

'वहाँ पहुँचकर ठीक-ठीक मालूम होगा। उन्हें संसार-भर के तो झंझटं घेरे रहते हैं।'

'उनकी सेना तो बड़ी अच्छी होगी? कालपी के नवाब का सामना अब की बार खूब अच्छी तरह करेंगे।'
'इसमें संदेह को कोई स्थान नहीं है।'

'महाराज का स्वभाव तो बहुत दयालु है?'

'अपने लोगों पर बड़ी दया करते हैं, बड़े वीर और दानी हैं।'

'तुम उनके पास सदा रहते हो?'

'जब कभी दलीपनगर में होता है, तब।'

'वह और किस-किस विषय में प्रीति रखते हैं? अर्थात् शास्त्र-चर्चा, विद्वानों का संग इत्यादि भी होता है?'

'मैं स्वयं इन बातों को कम समझता हूँ, परंतु महाराज हैं बड़े रसिक।' 'रसिक!' आश्चर्य के साथ गोमती ने कहा, 'रसिक से तुम्हारा क्या प्रयोजन?'

रामदयाल ने चतुरता प्रकट न करते हुए उत्तर दिया, 'जब कभी महीने, पखवाड़े में एक आध घड़ी का अवकाश मिल जाता है, कुछ गाना-वाना सुन लेते हैं, और कुछ नहीं।'

गोमती बोली, 'हाँ, राजा हैं।' फिर एक क्षण बाद पूछा, 'कुमुद और उस व्यक्ति में, जिसे तुमने बतलाया कि कुंजरसिंह है, कोई विशेष बातचीत हुई?'

उसने उत्तर दिया, 'ऐसे किसी विशेष वाक्य को संपूर्ण प्रसंग से निकालकर बतलाने से मेरी बात की पूरी पुष्टि न होगी, परंतु सारे वार्तालाप का प्रयोजन स्नेह या प्रेम को व्यक्त करनेवाला अवश्य था।'

गोमती ने अवहेलना के साथ कहा, 'ऊँह, मुझे क्या करना है? देखा जाएगा। रामदयाल, तुम महाराज से यह मत कहना कि मैं अपनी रसोई हाथ से बनाती हूँ।'

रामदयाल बोला, 'आपने अच्छा किया, जो मना कर दिया, नहीं तो अवश्य कह देता। महाराज को अब तक अवश्य कुछ खबर लेनी थी, परंतु उन्हें मालूम न था कि आप यहाँ हैं।'

'अब भी,' गोमती ने कहा, 'वह मेरी चिंता न करें। पहले अपने राज्य को सँभाल लें। जब तक शांति स्थापित न हो ले और वह बेखटके होजाएँ; तब इधर का ध्यान करें और कभी-कभी गाना-बजाना अवश्य सुन लिया करें।'


रामदयाल बोला, 'सो तो मैं उनके स्वभाव को खूब जानता हूँ। वह अभी न आवेंगे।'

रामदयाल जाने को उद्यत हुआ। गोमती ने कहा, 'रामदयाल, तम भूल मत जाना। जल्दी-से-जल्दी यहाँ की खबर लेना। एक बात का स्मरण रखना कि महाराज यहाँ छिप-लुककर न आवें। शत्रु बहुत पास हैं। पता लगने पर भारी अनिष्ट होगा।'

रामदयाल जुहार करके चला गया।

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