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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...

:५७:

रानियों के विद्रोह का पता राजा देवीसिंह को शीघ्र लग गया। जनार्दन को बहुत खेद और क्षोभ हुआ। खोज लगाने पर उसे मालूम हो गया कि रानियाँ रामनगर की गढ़ी में पहुँच गई हैं। रामनगर का पतराखन दलीपनगर का जागीरदार न था और अपेक्षाकृत भांडेर के अधिक निकट होने के कारण उसके ऊपर कुछ जोर नहीं चल सकता था। एक निश्चय करके जनार्दन राजा के पास गया।

राजा ने कहा, 'तुम्हारा कहना न माना, इसलिए यह एक नई समस्या और कष्ट देने को खड़ी हो गई।' और मुसकराए।


जनार्दन ने देखा, शब्द जिस कष्ट को व्यक्त करने के लिए कहे गए थे, वह उसकी मसकराहट में न जाने कहाँ विलीन हो गए।
जनार्दन उसके स्वभाव से परिचित हो गया था। बोला, 'अब जैसे बनेगा, वैसे इस समस्या को भी देखना है। एक उपाय सोचा है।'
'वह क्या?' राजा ने सतर्क होकर पूछा।

मंत्री ने उत्तर दिया, 'मैं एक विश्वस्त दूत दिल्ली को रवाना करता हूँ। वह सैयदों की चिट्ठी कालपी के नवाब के नाम लाएगा।'
राजा बोले, 'उस चिट्ठी का असर एक वर्ष पीछेदिखलाई पड़ेगा। कौन पूछता है, उस अँधेरे गड्ढे में कि उस चिट्टी का क्या होना चाहिए।'

'वह ऐसी चिट्ठी न होगी।' जनार्दन ने कहा, 'कालपी के नवाब की सेना के लिए उस चिट्ठी का काफी महत्त्व होगा अर्थात् नवाब अलीमर्दान को दिल्ली से बुलावा आवेगा।'

'दूत कौन है आपका?' राजा ने पूछा।

'हकीमजी।' मंत्री ने उत्तर दिया, 'वह स्वयं सैयद हैं और राजनीति में भी निपुण हैं।'

'और वह हमारे राज्य से कुछ विरक्त-से भी रहते हैं। राजा ने कहा।

'नहीं महाराज।' जनार्दन बोला, आपके उदार और विश्वासपूर्ण बरताव के कारण वह बहुत संतुष्ट हैं। मुझसे भी मित्रता का कुछ नाता मानते हैं। उनके बच्चे-बच्चे यहीं हैं और वह कृतज्ञ-हृदय पुरुष हैं। दलीपनगर दिल्ली के मुगल सम्राटों का सहायक रहता चला आया है। हकीमजी की बात मानी जाएगी और अलीमर्दान को अपना हठ छोड़ना पड़ेगा। इधर-उधर कहीं थोड़े दिन के लिए चला जाए, फिर रानियों के विद्रोह का दमन बहुत सहज हो जाएगा। अवस्था शीघ्र कुछ ऐसी आती जा रही है कि थोड़े दिनों बाद हमारा कोई कुछ न बिगाड़ सकेगा।' 


राजा ने कहा, 'मुठभेड़ बच जाए, तो अच्छा है। नहीं तो हमें एक जोर का हमला कालपी के नवाब पर भांडेर में शायद करना पड़ेगा। विलंब होने से रानियाँ बाहर कुछ सरदारों को अपनी ओर कर लेंगी और हमारे यहाँ के भी कुछ मनमुटाव रखनेवाले जागीरदार उभड़ पड़ेंगे।' 


'उधर कुंजरसिंह भी अभी बने हुए हैं।' जनार्दन बोला, 'उनकी ओर से बहुत कम खटका है। किसी बात पर बहुत दिन जमे रहना उनके स्वभाव में नहीं है। आजकल वह विराटा की ओर हैं। उन्होंने अलीमर्दान के साथ संधि कर ली, तब अवश्य अवस्था कछ कष्टसाध्य हो जाएगी। उनका छोटी रानी के साथ मेल शायद हो जाए, परंतु अलीमर्दान के साथ न होगा। मैंने उनकी गति की परख के लिए जासूस छोड़ रखे हैं। ठीक बात मालूम होने पर निवेदन करूँगा। तब तक मैं हकीमजी को दिल्ली भेजकर अलीमर्दान का प्रबंध करता हूँ।'

जनार्दन के इस निर्णय के अनुसार हकीम को दिल्ली भेजा गया।

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