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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...

:५८:

भांडेर का पुराना नामलोग भद्रावती बतलाते हैं। यह पहज नदी के पश्चिमी किनारे पर बसा हुआ है। खंडहरों पर खंडहर हो गए हैं। किसी समय बड़ा भारी नगर रहा होगा। अब मसजिदों और सोन तलैया के मंदिर के सिवा और खास इमारत नहीं बची है। पहल के पूर्वी किनारे पर जंगल से दबा और भरकों से कटा हुआ एक विशाल प्राचीन नगर है। नदी के दोनों ओर भरकों, मैदानों, टीलों और पहाड़ियों के विशंखल क्रम हैं। पहूज छोटी-सी, परंतु पानीवाली नदी है और बड़ी सुहावनी है। भांडेर से दो-ढाई कोस दक्षिण-पूर्व की ओर जहाँ से कुछ अंतर पर लहराती हुई पहूज नदी उत्तर-पश्चिम की ओर आई है-सालोन भरौली की पहाड़ियाँ हैं। इनके बीच में पत्थर का एक विशाल तथा बहुत प्राचीन मंदिर है। मंदिर में महादेवजी की मूर्ति प्रतिष्ठित है। यहाँ से विराटा पश्चिम की ओर करीब छ: कोस है। यहीं अलीमर्दान अपनी सेना लिए पड़ा था।

एक दिन रामदयाल अँधेरे में अलीमर्दान की छावनी में आया। जरा दिक्कत के बाद अलीमर्दान के डेरे पर पहुंचा। कालेखाँ उसके पास मौजूद था। रामदयाल को अलीमर्दान ने पहचान लिया। पूछा, 'तुम यहाँ कैसे आ गए? सुना था, कैद में हो।'


'कैद में अवश्य था, परंतु छूटकर आ गया हूँ। महारानी भी कैद कर ली गई थीं, परंतु वह भी स्वतंत्र हो गई हैं।

'अब वह कहाँ हैं?'

'रामनगर में राव पतराखन की गढ़ी में।'

अलीमर्दान ने आश्चर्य प्रकट किया, 'उन जैसी वीर स्त्री शायद ही कहीं हो। कैसी जवाँमर्द और दिलेर हैं! मझे उनके राखीबंद भाई होने का अभिमान है।' ।

रामदयाल बोला, 'प्रण निभाने का ठीक समय आ गया है। दलीपनगर पर चढ़ाई करने के लिए प्रार्थना करने को यहाँ भेजा गया है।'

अलीमर्दान ने कहा, 'मैं दिल्ली के समाचारों के लिए ठहरा हुआ हूँ। इस लड़ाई में उलझ जाने के बाद यदि दिल्ली का ऐसा समाचार मिला, जिससे किसी दूसरी जगह जाने का निश्चय करना पड़ा तो बुरा होगा।'

परंतु, रामदयाल ने विनती की, 'आप हम लोगों को मझधार में नहीं छोड़ सकते। महारानी आपके भरोसे कैद से स्वतंत्र हुई हैं। बड़ी रानी ने भी अब की बार उनका साथ दिया है।'

'तब तो राज्य के कुछ अधिक सरदार उनके साथ होंगे।' अलीमर्दान ने सम्मति प्रकट की, 'सरदार महारानी के साथ हैं या उन्होंने साथ देने का वचन दिया है?'

रामदयाल ने उत्तर दिया, 'वचन दिया है। अवसर आते ही रण-स्थल पहुँच जाएंगे।'

'कुंजरसिंह कहाँ है?' 'उनके विषय में भी निवेदन करने के लिए आया हूँ।'
यह कहकर रामदयाल ने ऊपर की ओर एक क्षण के लिए देखकर सिर नीचा कर लिया। कालेखाँ के प्रति इस संकेत को समझकर अलीमर्दान ने कहा, 'तुम्हें जो कुछ
कहना हो, बेधड़क होकर कहो।'

एक बार कालेखाँ और फिर अलीमर्दान की ओर देखकर रामदयाल बोला, 'मैं आपको अच्छी तरह जानता हूँ। आप कुंजरसिंह से भलीभाँति परिचित हैं। वह इस समय विराटा की गढ़ी में हैं। राजा देवीसिंह से शायद अकेले ही लड़ने की चिंता कर रहे हैं।

अलीमर्दान ने कहा, 'विराटा का सबदलसिंह क्या कुंजरसिंह का तरफदार है?'

'नहीं सरकार, उन्होंने कोई वचन नहीं दिया है।' रामदयाल ने उत्तर दिया, 'सच्ची बात कहूँगा। विराटा के राजा को अभी पता भी नहीं है कि कुंजरसिंह गढ़ी में हैं।'

'यह कैसे?' अलीमर्दान ने अचंभा किया।
रामदयाल बोला, 'गढ़ी में देवी का मंदिर है। पालर की वही पुजारिन लड़की उस मंदिर में छुपी हुई है और वहीं पर कुंजरसिंह हैं।'
'ऐं!' कालेखाँ ने कहा।

'हैं!' अलीमर्दान को ताज्जुब हुआ।

'हाँ सरकार।' रामदयाल बोला, 'मैं अपनी आँखों से देख आया हूँ।'

अलीमर्दान ने कुछ सोचकर कहा, 'मैं कुछ दिनों से पता लगा रहा था, परंतु मुझे सफलता नहीं मिली।'
कालेखाँ बोला, 'अब तो हुजूर को पक्का पता लग गया। कोई शक नहीं रहा।'

'यह सब ठीक है।' अलीमर्दान ने कहा, परंतु मैं मंदिर या मंदिर की पुजारिन किसी के साथ कोई ज्यादती नहीं करना चाहता।'

कालेखाँ ने आग्रह किया, 'मंदिर या मूर्ति के साथ ज्यादती करने का हुजूर ने कभी इरादा जाहिर नहीं किया, परंतु मेरी विनती है कि वह पुजारिन देवी या मंदिर तो है
नहीं।'
'नहीं कालेखाँ।' अलीमर्दान ने दृढ़ता के साथ कहा, 'हिंदू लोग उस पर विश्वास करते हैं। वह अवतार हो या न हो, मैं हिंदुओं के जी दुखानेवाले किसी काम को न करूंगा।'

रामदयाल हाथ जोड़कर बोला, 'दीनबंधु, वह न तो अवतार है और न कुछ और। मैं अपनी आँखों से सब बातें अच्छी तरह देख आया हूँ। उसका बाप हद दर्जे का लालची है
और वह स्वयं कुंजरसिंह के पंजे में शीघ्र आनेवाली है।'

'क्या?' अलीमर्दान ने आश्चर्यसूचक प्रश्न किया।

'हाँ सरकार।' रामदयाल ने उत्तर दिया, 'मैंने अपने कानों कुंजरसिंह की बातचीत सुनी है। अभी वह उनके हाथों नहीं चढ़ी है, परंतु औरत है, उसका कुछ ठीक नहीं, कब कुंजरसिंह के साथ कहाँ भाग जाए।'

'हुजूर को रामदयाल की शाख का यकीन करना पड़ेगा।' कालेखाँ ने कहा।

अलीमर्दान थोड़ी देर तक चुप रहा। सन्नाटा छाया रहा। रामदयाल ने स्तब्धता भंग की। बोला, 'सरकार मेरे साथ वेश बदलकर चलें, तो अपनी आँखों सब देख लें।'
अलीमर्दान ने कालेखाँ की ओर गुप्त रीति से देखा। एक क्षण बाद बोला, 'मझे महारानी साहब से बातचीत करने के लिए एक दिन जाना है। वेश बदलकर विराटा भी हो आऊँगा। परंतु मैं यह चाहता हूँ कि रामदयाल, महारानी के पास का जाना अभी किसी को मालूम न हो। मैं कालेखाँ को भी साथ ले चलूंगा।'

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