ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
:५९:
कुंजरसिंह को दलीपनगर का मुकुट प्राप्त करने की पूरी आशा थी, परंतु वह सोचता था कि देवीसिंह बिना अधिकार के सत्ता धारण किए हुए है, इसलिए जी में कड़ी ठेस-सी लगी रहती थी। इसके सिवा देवीसिंह से पराजय का जब वह कारण ढूँढ़ता था, तब उसका मन यही उत्तर देता था कि यदि रानी ने गड़बड़ न की होती तो पराजय न होती। परंतु यदि दलीपनगर का राज्य हाथ आ जाता? अपनी आशाओं या दुराग्रहों के अनुकूल ही कुंजरसिंह ने अपने तर्क और युक्ति के सूत काते।
कुंजरसिंह के पास न सेना थी, न सरदार थे और न था उसके पास धन; परंतु उसके पास निराशाओं की आशा थी। देवीसिंह और जनार्दन के प्रति हदय में थी कढ़न और रक्त में शूरता, जो असंभव की प्राप्ति के लिए भी उद्योग करने की कभी-कभी प्रेरणा कर देती थी।
उसने विराटा का पड़ोस स्वच्छंद गढ़पतियों को एकत्र करने के लिए ढूँढ़ा था। पूर्व उदाहरण से उसे उत्साह मिला था। परंतु विराटा में आने पर उसने अपने मन को टटोला तो देखा कि वहाँ अब अपने प्रयोजन पर आरूढ़ करनेवाली वह निरंतर लगन नहीं है जो पहले कभी थी। रामदयाल के चले जाने पर उसे कुमुद से फिर एक बार बातचीत करने की अभिलाषा हुई। कोई विशेष विषय न था, कोई अर्थमूलक प्रश्न भी न था, परंतु बातचीत करने की लालसा प्रबल थी। कुमुद नहीं मिली। प्रयत्न करने पर भी वह उससे न मिल पाया।
तब कुंजर अपने दूसरे ध्येय की प्राप्ति या खोज में विराटा से निकल पड़ा।
मुसावली से अपना घोड़ा लेकर और शीघ्र लौटने का वचन देकर वह अपने मित्रों की
टोह में चल
दिया।
उधर रामदयाल अलीमर्दान और कालेखाँ को छद्मवेष में विराटा लिवा लाया। वहाँ से
अलीमर्दान को शीघ्र जाना पड़ा। जीवन में पहले कभी उसने हिंदुओं के रीति-रिवाज
का अभ्यास न किया था, इसलिए बदली हुई वेश-भूषा का निर्वाह करना उसे लगभग
असंभव प्रतीत हुआ। कालेखाँ को अपने बदले हुए वेष से घृणा थी और वह उसके
निर्वाह करने का उपाय बहुत लापरवाही और उद्दीपन से कर रहा था। अलीमर्दान
इसलिए इच्छा न होते हुए भी शीघ्र लौटा और रामदयाल के साथ रामनगर चला गया।
अभ्यास न होने के कारण उन दोनों को नया वेष भारी आफत मालूम हो रहा था, इसलिए
पूर्व-निश्चय के प्रतिकूल उन दोनों ने रामनगर पहुँचते-पहुँचते वह वेश
करीब-करीब आधा त्याग दिया।
राव पतराखन ने गढ़ी में प्रवेश के पश्चात् उन दोनों के विषय में रामदयाल से पूछा, । उसने उत्तर दिया, 'महारानी के सरदार हैं। वेश बदले हुए हैं। कुछ सलाह करके अभी भांडेर की ओर कालपी के नवाब से बात करने के लिए लौट जाएँगे। मैं नवाब साहब के पास हो आया हूँ। सहायता का वचन पक्का हो गया है।' ___ इससे पतराखन को बहुत शांति नहीं मिली। बोला, 'सलाह-सम्मति यदि शीघ्र .. स्थिर हो जाए, तो बड़ा सुभीता रहे। लड़ने-भिड़ने का काम पड़े, तब मेरे सिर को आगे देखना, परंतु अपरिचित आदमियों को इतने बेखटके अपने घर में देखकर मुझे परेशानी होती है।
रामदयाल ने कहा, 'घबराइए नहीं, अब और कोई अपरिचित यहाँ न आएगा। विराटा के राजा ने सहायता का वचन नहीं दिया है, इसलिए शीघ्र वहाँ धावा होगा और हम लोग उस गढ़ी में चले जाएंगे। तब तक तो आपको हमारे आतिथ्य का कष्ट सहन करना ही पड़ेगा।'
राव पतराखन तुरंत नरम पड़ गया। बोला, 'नहीं, मेरा यह मतलब न था। आप लोगों का
घर है। जब तक जी चाहे, रहें। मैंने केवल अपरिचित लोगों के विषय में कहा था।
समय बुरा है, नहीं तो कोई बात न थी। आवश्यकता पड़ने पर विराटा के ऊपर चढ़ाई
आप यहीं से बैठे-बैठे कर सकते हैं।'
रामदयाल रानियों के पास चला गया। वह अलीमर्दान और कालेखाँ को पहले ही एक ओर
बिठा आया था।
राव पतराखन उस दिन विराटा के ध्वस्त होने की कल्पना पर अपने मन को भुलाता
रहा।
कभी-कभी जी में संदेह उठता था-क्या कालपी का फौजदार सचमुच रानियों की सहायता
करेगा?
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