उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
राम स्पष्ट देख रहे थे, कुलपति का मन उनके कर्म का विरोध कर रहा था। वे उदास थे...। विवेक कितना भी प्रेरित करे-अपनी प्रकृति के विपरीत कार्य करना कठिन होता है। मन की भीरुता, तन की कोमलता और संघर्ष के प्रति तत्परता, व्यक्ति को क्या बना देती है। ऐसा क्या खो गया है इन लोगों में, जो सत् पक्ष को जानते हुए भी उसका समर्थन नहीं कर पाते, उसके पक्ष में खड़े नहीं हो पाते। किस बात से डरते हैं-कष्ट से? पर कष्ट तो ये उठा ही रहे हैं। अपमान से? इस प्रकार, अपनी इच्छा के विरुद्ध, किसी भय से, अपना स्थान छोड़कर, कहीं और भटकने के लिए चल पड़ना, क्या अपमानजनक नहीं है। यह सैनिक दृष्टि से योजनाबद्ध प्रत्यावर्त नहीं है कि इसे रणनीति या रणकौशल मान लिया जाए। यह तो रण ही नहीं है। जब कभी संघर्ष का अवसर प्रस्तुत होगा-ये लोग इसी प्रकार पीछे हट जाएंगे। इन्हें कहीं भी 'सत्य' नहीं मिलेगा, कहीं 'न्याय' नहीं मिलेगा, कहीं अधिकार नहीं मिलेगा। 'सत्य' और 'न्याय' के संघर्ष से भागना, स्वयं 'सत्य' और 'न्याय' से दूर भागना है...राम की दृष्टि बहिर्मुखी हो रही थी : जय तथा उसके साथी कुछ उदास लग रहे थे। लक्ष्मण की मुद्रा अभी भी उग्र थी। सीता सहज हो चुकी थीं।
''आओ चलें।'' राम ने अपना धनुष उठा लिया, ''उद्घोष तथा उसके साथी हमारी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। आश्रम पहुंचकर उन्हें शस्त्रागार की रक्षा के दायित्व से मुक्त करना है।''
अपने-अपने विचारों में खोए सब लोग आश्रम की ओर बढ़े। कोई किसी से बात नहीं कर रहा था। केवल यांत्रिक रूप से, आगे-पीछे चलते जा रहे थे।
आत्मलीन राम के मन में पिछले तीन दिनों की घटनाओं की स्मृतियां थीं-कितना आकस्मिक था सब कुछ। किसने घटनाओं के इस रूप की कल्पना की होगी। अयोध्या में घटित घटनाओं के विषय में राम उत्सुक थे। अनेक आशंकाएं थीं...। जैसे-जैसे भरत के निकट आने के समाचार मिलते जिज्ञासाओं की भीड़ भ्री बढ़ती गई थी...। तीन दिन पहले वन्य-पशुओं में सहसा भगदड़ मच गई। चित्रकूट पर चारों ओर से धूल ही धूल उड़ने लगी। निकट के विभिन्न आश्रमों से सूचनाएं मिलीं कि भरत की सेना आ पहुंची है...। लक्ष्मण ने कवच कस लिया और अनेक दिव्यास्त्रों से सज्जित हो गए। उन्होंने आश्रम के पिछले मार्ग से मुखर को, उद्घोष के ग्राम की ओर दौड़ा दिया कि वह विभिन्न गृहों तथा आश्रमों से सशस्त्र युवकों को एकत्रित कर शीघ्रातिशीघ्र पहुंचे।
...सशस्त्र युवक-संगठनों ने तनिक भी विलंब नहीं किया। उद्घोष ने इतने युवक एकत्रित कर दिए थे कि वे अपने आश्रम को अच्छी तरह व्यूह-बद्ध कर सकते थे...। किंतु युद्ध की आवश्यकता नहीं पड़ी। भरत की सेना, आश्रम से दूर ही रुक गई थी। निकट आते ही भरत राम के चरणों पर गिर पड़े थे...।
राम अपनी कुटिया के द्वार पर आकर रुक गए।
''आश्रम के नये सदस्यों के रहने की क्या व्यवस्था होगी सौमित्र?''
''हम तुरंत निर्माण-कार्य आरंभ कर देते हैं भैया!'' लक्ष्मण बोले, ''किंतु आज की रात उद्घोष की कुटिया तथा अतिथिशाला से ही काम चलाना होगा।''
''हम से क्या तात्पर्य है लक्ष्मण?'' राम मुस्कराए, ''कहीं तुम इन लोगों को तो निर्माण-कार्य में नहीं लगाना चाहते? वे आहत हैं। उन्हें शारीरिक श्रम नहीं करना चाहिए।''
''नहीं आर्य!'' जय बोला, ''हम इतने अक्षम नहीं हैं कि आर्य सौमित्र की कोई सहायता न कर सकें। राक्षसों ने हमारी हड्डियां न तोड़ने की कृपा अवश्य दिखाई है।''
''नहीं! कुटीर-निर्माण का कार्य मैं और मुखर कर लेंगे।'' लक्ष्मण मुस्कराए, "इन्हें केवल मनोरंजनार्थ हमारा हाथ बंटाना होगा।''
''अच्छा! जाओ।''
लक्ष्मण इत्यादि को भेज, राम सीता के साथ कुटिया के भीतर आए। सीता बिना कुछ कहे, भोजन की व्यवस्था में लग गई, और राम की किंचन प्रक्रिया फिर चल पड़ी : भरत ने आते ही अपना अभिप्राय कहा। वे राम, लक्ष्मण तथा सीता को अयोध्या लौटा ले जाना चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि अयोध्या के राज़-परिवार की, परस्पर अविश्वास की परंपरा और आगे बड़े; और भरत के राज्य को युधाजित के आतंक का विस्तार माना जाए। वे नहीं चाहते थे कि अयोध्या में फिर कोई दुःस्वप्नों से पीड़ित होकर, वैसे प्राण त्यागे, जैसे सम्राट् दशरथ ने त्यागे थे...
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