उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
इस स्पर्धा में सीता का एक ही सहयोगी है : देवर लक्ष्मण। कितनी तड़प है लक्ष्मण में, स्वस्थ, साहसी, सामाजिक कार्य के लिए। अनीति देखकर, लक्ष्मण रुक नहीं सकते। और फिर अपने भैया राम का संकेत, उनके लिए पर्याप्त है। अब तो वे सत्रह वर्षों के हो गए हैं। चार वर्ष पूर्व जब वे राम के साथ सिद्धाश्रम गए थे, तब मात्र एक किशोर ही तो थे। किंतु किसी कर्म में, किसी जोखिम में लक्ष्मण पीछे नहीं रहे।
भरत और शत्रुघ्न भी सात्विक प्रवृत्ति के है और अन्याय देखकर, विरोध उनके मन में भी जागता है; किंतु उनमें राम और लक्ष्मण जैसी आग और तड़प नहीं है। वे दोनों ही आत्म-केन्द्रित हैं। समाज की गतिविधियों और प्रवृत्तियों से उनका कोई विशेष सम्पर्क नहीं है। यही कारण है कि न्याय के प्रति पूर्णतः समर्पित होने पर भी, उन्हें अपने पड़ोस में होता हुआ अन्याय भी दिखाई नहीं पड़ता। उनकी अपनी दीवार की छाया में अमानवीय अत्याचार पनपता रहता है, और उन्हें वह तब तक दिखाई नही पड़ता, जब तक कोई अन्य व्यक्ति उसकी ओर इंगित न कर दे। उन दोनों का समस्त बल स्वयं चरित्रवान बनने पर है, परिवेश की गंदगी दूर करने की ओर उनका ध्यान नहीं है। ऐसे लोग अनीति के समर्थक तो नहीं होते, किंतु अनीति को उनसे कोई विशेष भय भी नहीं होता।
यही कारण था कि भरत और शत्रुघ्न का संबंध अयोध्या और आसपास होने वाली सामाजिक और राजनीतिक हलचलों से कम, भरत के ननिहाल से ही अधिक था। एक ही माता के पुत्र होने पर भी लक्ष्मण और शत्रुघ्न मित्र थे। सुमित्रा का सारा प्रशिक्षण, शत्रुघ्न को भरत के भाग से मुक्त कर, लक्ष्मण जैसा नहीं बना सका था।
परिचारिकाओं की हलचल से, सीता को राम के आने का आभास मिला। राम ने कक्ष में प्रवेश किया। उनके चेहरे पर एक हल्की-सी मुस्कान थी, किंतु मुस्कान की उस परत के नीचे छिपी क्लांति, सीता की दृष्टि से ओझल नहीं रह सकी।
''प्रवास की थकान कम थी कि फिर स्वयं को इतना थका डाला?''
राम की आँखों ने सीता की निरीक्षण-शक्ति की प्रशंसा की, "तुमसे कछ भी छिपाना कठिन है सीते!''
''अभी तक भूखे हैं। कहीं भोजन भी नहीं किया होगा।''
राम मुस्कराए-भर, कुछ बोले नहीं।
सीता ने परिचारिका को भोजन लाने का संकेत किया, "देखती हूँ, सारे कार्यों के लिए अयोध्या में केवल एक ही व्यक्ति सुलभ है।''
राम झेंपते-से मुस्कराए, '"ऐसा नहीं है प्रिये! भेजने को तो मैं अन्य लोगों को भी भेज सकता हूँ, किंतु अपने अनुभव से, क्रमशः जान गया हूँ कि सामान्य राजपुरुष जब शासकीय कार्य के लिए जाता है, तो प्रजा अथवा शासन का भला कम करता है, अपना भला ही अधिक करता है।''
''कोई विशेष बात?''
''कुछ न कुछ तो होता ही रहता है। आज तो स्वयं सम्राट् के उठाए हुए ही अनेक बवंडर थे-। वैसे भी प्रजा के हित का ध्यान रख स्वयं राम का ही जाना उचित है।'' राम मुस्कराए, ''आशा है, मेरी प्रिया न तो आपत्ति करेगी, न बाधा देगी।'' परिचारिकाएं भोजन ले आईं।
"न आपत्ति, न बाधा।'' सीता बोली, ''किंतु आपको दिन-भर के कार्य के पश्चात भूखा तथा क्लांत घर लौटते देखकर, मुझे कष्ट अवश्य होता है। यदि आपके कार्यस्थल पर भोजन तथा थोड़े आराम की व्यवस्था हो पाती, तो अपने पति को सत्कार्य करते देख मुझे असीम तृप्ति होगी।''
"व्यवस्था तो हो सकती है; पर भोजन के लिए राम, लौटकर सीता के पास ही आना चाहता है।'' राम के चेहरे पर कौतुक का भाव था, ''और सीता के साहचर्य के बिना विश्राम है कहां!''
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