उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
तीन
तीन सप्ताहों के प्रवास के पश्चात राम प्रातः ही लौटे थे। सीता से कुशल-क्षेम पूछी। स्नान-भर करने का अवकाश पाया कि लक्ष्मण, सुयज्ञ, चित्ररथ, त्रिजट, कुछ अन्य मित्र और सहयोगी मिलने आ गए। क्षणों में ही उनकी अनुपस्थिति में हुई सारी घटनाएं उनके सम्मुख अहा गई। फिर राम के पास रुकने का तनिक भी अवकाश नहीं था। खाने के नाम पर जल्दी-जल्दी कुछ निगला और चल पड़े। सीता के लिए यह बहुत अनपेक्षित नहीं था। राम कुछ दिनों के प्रवास के पश्चात अयोध्या लौटते थे तो पीछे इतना कुछ घट चुका होता था कि राम प्रहर-भर का विश्राम भी नही कर पाते थे। आज भी यही हुआ था।
जाते-जाते कह गए, 'काम अधिक है। प्रयत्न करूंगा, दोपहर को समय से लौट आऊं। पर यदि विलंब हो जाए तो चिंता मत करना। समय से भोजन कर लेना।''
ऐसी बातें सीता सुन-भर लेती हैं, जानती हैं इसमे न कुछ नया है, न गलत। चार वर्षों के दाम्पत्य जीवन के पश्चात, अब कुछ नया हो भी क्या सकता है। कर्म के तेज बहाव वाले इस जीवन में, प्रेम के पुलक प्रसंगों का समय, कदाचित व्यतीत हो गया है। अपवाद स्वरूप, कभी कोई क्षण प्रेम-पुलक से भर जाए, तो भर जाए; नहीं तो काम-काजी व्यावहारिक जीवन में प्रेम की ऊहात्मक उक्तियां परिहास बनकर रह जाती हैं। अब जीवन, मात्र कर्म हो गया है। करने को इतना कुछ हो, तो सामाजिक दायित्व के प्रति सजग पति-पत्नी, अपने जीवन को पुलकित प्रेम की कहानी नहीं बना सकते।
फिर भी, राम को भोजन कराए बिना, स्वयं खा लेने की बात सीता आज तक स्वीकार नहीं कर सकी। वे जानती हैं राम पर राज्य की ओर से सौंपे गए दायित्व तो हैं ही, उनके अपने भीतर की आग भी उन्हें निष्क्रिय बैठने नहीं देती, जब घर से बाहर जाते हैं, कहीं-न-कहीं शासन की कोई अनीति, शिथिलता, कर्त्तव्यहीनता अथवा उपेक्षा देखकर, या पिघल जाते हैं, या जल उठते हैं।...सम्राट् दिन-प्रति-दिन वृद्ध और शिथिल होते जा रहे हैं। शासन के सूत्र उनके हाथों से फिसलते जा रहे हैं। बहुत सतर्क रहने पर भी उनसे कोई-न-कोई प्रमाद होता ही रहता है। राम की अनुपस्थिति में पिछले कई दिनों यहां क्या कुछ नहीं हुआ। वैसे भी कहीं-न-कहीं से किसी राजपुरुष के अमर्यादित अथवा अनीतिपूर्ण व्यवहार की सूचना राम को मिलती ही रहती है; और फिर राम शांत नही बैठ सकते। दृढ़ आत्म-नियंत्रण के कारण उनमें आवेश का ज्वार नहीं उठता; किंतु हल्की-हल्की आँच उन्हें तपाती ही रहती है।
वे चाहती हैं कि सामाजिक तथा प्रशासनिक कामों में राम का हाथ बटाएं पर राम की व्यक्तिगत देख-भाल के साथ स्त्रियों तथा बच्चों के कल्याण संबंधी कुछ कामों के अतिरिक्त वे कुछ नहीं कर पाई हैं। इस परिवार का ही नहीं, समाज का ढांचा ही कुछ ऐसा है कि नारी कहीं शोभा की वस्तु है, कहीं भोग की। कहीं वह अत्यन्त शोषित है, कहीं परजीवी अमरबेल होकर रह गई है नारी; जो अपने पति के माध्यम से समाज का रस खींचती है। समाज से उसका सीधा कोई संबंध नहीं है। घर की व्यवस्था में तो फिर भी उसका स्थान है, सामाजिक उत्पादन में वह एकदम निष्प्रयोजन वस्तु है। निर्धन किसान की पत्नी उसके साथ खेत पर जाकए उसका हाथ बंटाती है, श्रमिक की पत्नी पति के साथ या स्वतंत्र रूप से श्रम करती है किंतु धनी वर्ग की स्त्रियां मात्र जोंकें है। चूसने के लिए उन्हें रक्त चाहिए। उनकी सामाजिक उपयोगिता पूरी तरह शून्य है और उनकी आवश्यकताए आसमान को छू रही हैं। उन्हें भड़कीले वस्त्र चाहिए, चमकीले आभूषण चाहिए; प्रसाधन के लिए चंदन-कस्तुरी के छकड़े भी उनके लिए अपर्याप्त हैं; चर्बी चढ़ाने के लिए दुनिया भर का गरिष्ठ और स्वादिष्ट भोजन चाहिए।
सीता के छोटे-मोटे स्फुट प्रयत्न, रूढ़-व्यवस्था के विरुद्ध, लोहे की दीवार पर हाथ के नाखूनों से लगाई गई खरोच मात्र थे-जो दिखाई भी नहीं पड रहे थे...। वस्तुतः वे प्रतीक्षा भर कर रही थी, और तैयारी भी। उनका शरीर घर और बाहर की नियमित दिनचर्या में लगा रहता था; किंतु भविष्य की कल्पनाएं करता रहता था-आने वाले समय के लिए योजनाएं बनाता रहता था। कहीं ऐसा न हो कि जब अवसर आए तो सीता को करने के लिए कोई काम ही न सूझे।
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