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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14994
आईएसबीएन :9788181431950

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अवसर

लक्ष्मण ने अब तक स्वयं को संभाल लिया था। पूर्ण गंभीरता का अभिनय करते हुए बोले, ''ऋषिवर। हमे भी आपके साथ चलकर, अश्व मुनि के आश्रम में रहने की बड़ी इच्छा थी, पर हम जा नहीं पाएंगे, असमर्थता को क्षमा करें। हम नहीं चाहते कि हम आपके साथ-साथ लगे फिरे, और आप अपने छकड़ों से अपना सामान भी न उतार पाएं।''

इससे पूर्व कि राम आगे बढ़कर, लक्ष्मण से कुछ कहते, कालकाचार्य उन्मुक्त कंठ से हँस पड़े। राम ने कुछ विस्मय से देखा; कुलपति का कंठ ही नहीं, मन भी उन्मुक्त था। लक्ष्मण ने अपने इस वाक्य से न केवल अपने मन की कह दी थी, वरन् कुलपति के मन की ग्लानि भी धो डाली थी।

''बहुत अच्छी बात कही तुमने वत्स सौमित्र!'' हंसी के पश्चात् कुलपति अत्यन्त निर्मल हो आए थे। उनकी आकृति की औपचारिकता भी विलीन हो गई थी, और वे सहज हो गए थे, ''तुमने यह न कहा होता तो कदाचित् मैं भी सच न बोल पाता। पुत्र! मेरा विश्वास करो। तुम लोगो का सहवास, हम सब तपस्वियों के लिए, अत्यन्त आनन्ददायक है। यह हमारी हार्दिक इच्छा है पुत्र! कि तुम हमारे साथ रहो। कितु लक्ष्मण! सारे मनुष्यों की प्रकृति एक समान नहीं होती। हम लोग स्वयं अपने-आपमे न्यायपूर्ण आचरण करने, वाले हैं। हम बिना किसी जीव को कष्ट दिए, मानवता के सुख के लिए ज्ञान, विज्ञान, कला तथा संस्कृति के विकास के लिए प्रयत्नशील हैं। अतः मन से हम न्याय के समर्थक और अन्याय के विरोधी हैं। इस दृष्टि से हम तुम्हारे सहयोगी हैं। किंतु पुत्र। अपने जन्मजात स्वभाव, राजसिक वृत्ति के अभाव तथा संयम के लम्बे प्रशिक्षण के कारण, हम लोग तुम्हारे समान संघर्षशील नहीं हैं। अतः अन्याय के विरोध के लिए सक्रिय अवसर उपस्थित होते ही, हम लोग प्रायः उस स्थान से हट जाते हैं। हम लोग अपनी सीमाएं पहचानते है। ऐसा नहीं है पुत्र! कि मैं नहीं चाहता कि मैं भी तुम्हारे ही समान शस्त्र धारण कर राक्षसों का हनन करूं? किंतु मैं अपनी तथा इन तपस्वियों की भीरु प्रवृत्ति का क्या करूं? हमें अपना विरोधी न समझो। तुम्हारे साथ न रह सकने का अर्थ कदापि यह नहीं है कि हम राक्षसों के मित्र हैं। हम तुम्हारे असम तथा भीरु मित्र हैं, जो संघर्ष करने का साहस नहीं बटोर पा रहे। सौमित्र! हमारे प्रति मन में क्रोध न रख, करुणा और दया का भाव धारण करो।''

कुलपति मौन हो गए। उनका स्वच्छ मन, उनकी पारदर्शी आँखों में झांक रहा था। कोई भी देख सकता था कि उनके संपूर्ण व्यक्तित्व में कहीं कोई दुराव नहीं था। उन्होंने वाणी के माध्यम से अपना मन, सहज ही सबके सम्मुख रख दिया। लक्ष्मण कुछ संकुचित हुए : शायद उन्हें इस निश्छल और निर्मल वृद्ध से, ऐसी कटु बातें नहीं कहनी चाहिए थीं।

''आर्य कुलपति!'' राम ने आगे बढ़कर, बात संभाल ली, ''लक्ष्मण की बात का बुरा न मानें। हम दोनों एक-दूसरे का पक्ष समझते हैं। ऋषिवर! हम क्षत्रियों का शस्त्र धारण करना तभी सार्थक होगा, जब आप जैसे निष्पाप तपस्वी खुलकर, हमे अपना स्नेह दे सकेंगे : और हम न्याय के नाम पर आपको अभय दे सकेंगे। कुलपति सहज मन से अपनी यात्रा पर जाए। इस अलगाव से किसी के मन में वैमनस्य न रहेगा।"

कुलपति ने धीरे-धीरे अपनी भीगी आँखें ऊपर उठाईं और राम के चेहरे पर टिका दीं, ''राम! मेरे इन ब्रह्मचारियों का ध्यान रखना। ये पाँचों तपस्वी हैं। आशा है, ये मेरे पाप की क्षतिपूर्ति करेंगे...।''

कुलपति ने उन लोगों की ओर देखे बिना मुख मोड़ लिया; और धीरे-धीरे चलते हुए, अपने छकड़े पर जा बैठे। बैठते ही उन्होंने गाड़ीवानों को संकेत किया, ''चलो।''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पंद्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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