उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
वह सीता तथा सुमेधा से उचित दूरी बनाए; शिष्ट भाव से खड़ा हो गया, ''क्या आर्य राम का आश्रम यही है?''
उसका स्वर सुनकर सीता चौंक उठीं। कैसा कर्कश स्वर था इस पुरुष का-एकदम बनैले कौए का-सा। और आँखें भी तो वैसी ही थीं-छोटी-छोटी, तीखी और गोल। कौआ, एकदम कौआ-सीता ने सोचा-मनुष्य के शरीर में कौए की आत्मा। उसके शब्द पर्याप्त शिष्ट थे, किंतु उसके चेहरे का भाव वैसा नहीं था...सुमेधा उसे देखकर अपने-आपमें सिमट गई।
सीता ने अपने आत्मबल का आह्वान कर, निर्भीक स्वर में कहा, ''आर्य ठीक स्थान पर आए हैं; किंतु राम इस समय आश्रम में उपस्थित नहीं हैं।''
''आर्य लक्ष्मण?''
''वे भी कहीं गए हुए हैं।'' सीता बोलीं, ''आप अतिथिशाला में ठहरें वे लोग शीघ्र ही आ जाएंगे।''
आगंतुक के चेहरे की रही-सही शिष्टता भी धुल गई। उसके मन के भाव निरावृत्त होकर उसके चेहरे पर प्रकट हुए।
''राम से मुझे कोई काम नहीं है। मैं तो तुम्हारे लिए ही आया हूँ सुंदरी!'' सुमेधा आशंका से पीली पड़ गई।
सीता ने साहस नहीं छोड़ा, ''कौन है तू अभद्र? तू नहीं जानता राम और सौमित्र को तनिक-सी भी सूचना मिल गई, तो तेरा मुंड, रुंड से पृथक् हो धरती पर लोट जाएगा।''
पर आगंतुक जैसे कुछ भी नहीं सुन रहा था।
''सुमेधा!'' सीता धीरे से बोलीं, ''खड्ग ला। मैं इस दुष्ट को देखती हूँ।'' सुमेधा शस्त्रागार के भीतर घुस गई।
आगंतुक ने उसे देखा। कुछ सोचकर मुस्कराया, ''तुम्हारी सखी समझदार है सीते! वह जानती है, वह कब और कहां अवांछित है।''
वह सध पगों से आगे बढ़ रहा था।
''तुम्हारी बुद्धि की बलिहारी। किंतु, तुम रुक जाओ।'' सीता ने आदेश दिया, ''नहीं तो तुम्हारी समझ में अच्छी तरह आ जाएगा कि तुम कब और कहां अवांछित हो।''
''शुभ लक्षणे!'' आगंतुक के चेहरे पर वीभत्स मुस्कान उभरी, ''अपने विषय में मैं अच्छी तरह जानता हूँ; तुम्हें ही अपना मूल्य ज्ञात नहीं। तुम्हें क्या मालूम, मैंने संसार में कहां-कहां तुम्हारे रूप की चर्चा सुनी है; और मैं कितनी दूर से तुम्हें पाने के लिए आया हूँ...।''
''मौन हो दुष्ट!'' सीता के भरपूर हाथ का चांटा आगंतुक के मुख पर पड़ा।
क्षण-भर के लिए आगंतुक हतप्रभ रह गया, वह इस प्रकार के प्रहार के लिए तैयार नहीं था। किंतु, दूसरे ही क्षण, वह सीता पर झपट पड़ा। उसने सीता को अपनी भुजाओं में बांध लिया था। उसकी जकड़ में निरुपाय सीता छूटने के लिए तड़प रही थीं...तभी सुमेधा ने पीछे से आगंतुक की पीठ में खड्ग अड़ा दिया। सीता उसकी पकड़ से निकल गईं। वह पीछे की ओर पलटा। तब तक सीता सुमेधा से दूसरा खड्ग ले चुकी थीं, और वे प्रहार के लिए सन्नद्ध थी। आगंतुक ने भी अपना लंबा खड्ग कोष में से निकाल लिया।
''सीता! समर्पण कर दो, अन्यथा प्राणों से जाओगी।'' वह अत्यन्त क्रूर दिखाई पड़ रहा था।
''दुष्ट! तू भी देख, किसके प्राण पृथ्वी को भारी हो रहे हैं।'' सीता बोलीं; ''सुमेधा! मुखर को बुला ला।''
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