उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
''ठीक कहते हो राम।'' ऋषि चिन्तन मे अर्ध-लीन हो गए, ''तो फिर कहां आश्रम बनाने का निश्चय किया है?''
''माता कैकेयी की आज्ञा दंडकारण्य मे जाने की है। अंततः हमे वहीं जाना है; किंतु मार्ग में रुक-रुककर, ऋषि-मुनियों तथा जन-साधारण के जीवन से परिचय प्राप्त करते हुए, उनकी कठिनाइयों को देखते हुए, उनके साथ समय व्यतीत करते हुए तथा उनकी सहायता करते हुए, हम आगे बढ़ना चाहेंगे। पहले पड़ाव के लिए आपके निर्देश की अपेक्षा है। वैसे मैं चाहता हूँ कि ऋषि वाल्मीकि के दर्शन कर, हम चित्रकूट के आसपास, मंदाकिनी तट पर तपस्वियों के साथ कुछ समय बिताएं।"
'तुमने बहुत ठीक सोचा है वत्स!" ऋषि कुछ उदास भी थे और प्रसन्न भी, "तुम्हारी दोनों ही बातें अच्छी हैं। चित्रकूट बहुत सुन्दर स्थान है। वहां की प्राकृतिक शोभा अद्मुत है। मंदाकिनी का जल स्वच्छ, निर्मल और स्वास्थ्यकर है। आस-पास कोई नगर अथवा जनपद न होने के कारण बहुत जन-रव नहीं है; अनेक तपस्वियों के आश्रमों के कारण जन शून्यता भी नहीं है। किन्तु वत्स...'' ऋषि मौन हो गए।
''किंतु क्या ऋषिवर!'' लक्ष्मण ने पहली बार अपना मौन तोड़ा।
सीता मुस्कराईं-लक्ष्मण की उत्सुकता जाग उठी थी।
''वह स्थान अब बहुत सुरक्षित नहीं समझा जाता।'' भारद्वाज बोले, ''राक्षसों की दृष्टि उस क्षेत्र पर बहुत दिनों से लगी हुई थी। अब क्रमशः उनका आतंक बढ़ता जा रहा है। यदाकदा होने वाले उनके आक्रमण अब नियमित घटनाओं में परिवर्तित होते जा रहे हैं। उस क्षेत्र में बसने वाले आर्य तथा आर्येतर जातियों के टोले-पुरवे शनैः शनैः उजड़ते जा रहे हैं। राक्षस नहीं चाहते कि सामान्य जन, परिश्रम कर, ईमानदारी से अपनी आजीविका कमाएं तथा शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करें। वे नहीं चाहते कि तपस्वियों तथा बुद्धिजीवियों का ज्ञान और बल साधारण जनता को मिले, ताकि उनका जीवन सरल हो सके। वे ज्ञान-विज्ञान को जन-साधारण से दूर रखना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि विभित्र जातियां परस्पर एक-दूसरे के निकट आएं और परस्पर अपने ज्ञान का लाभ बांटे। चित्रकूट में अब अधिकांशतः भीरु तपस्वी बचे हैं, जो राक्षसों के किसी अत्याचार का विरोध नहीं करते, वहां निर्धन तथा उपायहीन वनवासी बचे हैं, जिनके पास अन्य स्थानों पर जीविका कमाने का कोई संबल नहीं है या वह सुविधाजीवी लोलुपजन बचे हैं, जो राक्षसों के सहायक होकर स्वयं राक्षस हो गए है।"
''यही स्थिति सिद्धाश्रम प्रदेश की भी थी।'' लक्ष्मण बोले।
''दुष्ट सचित धन, हिस्त्र पशुबल तथा भ्रष्ट राजनीतिक सत्ता पुंजीभूत कृति इस राक्षसी प्रकृति को यदि न रोका गया तो वह आश्रमों को क्या समस्त आर्यावर्त और देवभूमि को भी ग्रस लेगी। पहले तो सुमाली के भाई-बांधव ही राक्षस थे, अब अनेक यक्ष, गंधर्व, किरात तथा आर्य भी राक्षस होते जा रहे हैं। स्वर्ण को अपना सर्वस्व मानने वाला, मनुष्य के पशुत्व को उकसाने वाला रावण, प्रत्येक दुष्टता को प्रश्रय दे रहा है। वह समस्त मानवीय मूल्यों का ध्वंस कर रहा है।...तांत्रिक अंध विश्वासों तथा अभिचार कृत्यों से वह ज्ञान एवं सत्य का गला घोंट रहा है। मानवता
के भावेष्य के स्वरूप की अवज्ञा कर, वह किसी भी प्रकार अधिकाधिक भोग विलास में लगा हुआ है...''
''इसका प्रतिरोध कैसे होगा ऋषिवर?'' सीता बोलीं, ''क्या इन दो धनुर्धारी वीरों के द्वारा?''
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