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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14994
आईएसबीएन :9788181431950

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अवसर

कौसल्या ने धीरे से आँखें खोलकर राम को देखा और फिर अपनी दृष्टि सुमित्रा पर टिका दी, ''इसे रोक सुमित्रा! कैकेयी तो बहाना है। यह स्वयं ही वन जाने को तुला बैठा है।''

कौसल्या की शक्ति जैसे समाप्त हो गई; वह निढाल हो चुप हो गई। सुमित्रा चुप न रह पाईं। बोलीं, ''इस प्रकार के आदेशों को स्वीकार करना क्या धर्म है राम! तुम अपना अधिकार ही नहीं छोड़ रहे, कैकेयी के अत्याचार का समर्थन भी कर रहे हो। अपने बल को पहचानो पुत्र! तुम्हारे एक संकेत पर कोसल की प्रजा कामुक सम्राट् को मार्ग से हटा तुम्हारा अभिषेक कर देगी। और प्रजा को भी रहने दो। अकेला लक्ष्मण इन दुष्टों को दंड देने में पूरी तरह समर्थ है।''

राम मुसकराए, ''मां! धर्म क्या है, कहना बड़ा कठिन है। वह कब संघर्ष में है और कब त्याग में-इसकी परख आवश्यक है। पूर्ण सत्य हमारे सम्मुख प्रत्यक्ष नहीं होता। उस अज्ञात सत्य, उन अनदेखी परिस्थितियों के प्रति हमारा दायित्व है-यह भी नहीं जानते। भाई-बांधवों की हत्याएं कर, रक्त के सरोवर में तैर, एक पिशाच के समान राज सिंहासन तक पहुंचना, मेरे जीवन का लक्ष्य नहीं है। इस समय वन जाना ही मेरा कर्त्तव्य है। मां! मैं न सम्राट् के बल से भयभीत हूँ न भरत के; अपने और लक्ष्मण के बल से भी अनभिज्ञ नहीं हूँ। किंतु अभी बल प्रदर्शन का समय नहीं आया। मां! मुझे जाने दो...''

''ठहरो राम!'' सुमित्रा का स्वर त्वरित था, ''जल्दी न भागो। बताओ, सम्राट् ने अपने मुख से तुम्हें वन जाने को कहा है?''

''नहीं।''

''फिर यह सम्राट् का आदेश कैसे है?''

''आदेश की बात मैं नहीं कहता।'' राम मुसकराए, ''अपने कर्त्तव्य की बात कहता हूँ। उसी के पालन के लिए जा रहा हूँ।''

''पिता ने नहीं कहा, तो भी?''

''डूबता हुआ आदमी न कहे, तो भी उसे बचाना कर्त्तव्य है।''

सुमित्रा ढीली पड़ीं। उनकी वाणी में पहले जैसा आग्रह नहीं था, ''तुम्हारे अभिषेक का निर्णय, राज्यपरिषद् ने एकमत से किया था, यदि सम्राट् ने परिषद् के निर्णय की इस प्रकार अवहेलना की तो परिषद् उनका विरोध करेगी। राज्य में विप्लव हो जाएगा। संभव है सम्राट् और कैकेयी की हत्या कर दी जाए। तुम वन जाकर सम्राट् का अहित करोगे।''

''सम्राट् मुझे वन भेजें तो राज्य में विप्लव और रक्तपात होगा, न भेजें तो कैकेयी हठ और दुराग्रह कर प्राण दे देंगी। सम्राट् का अपवाद फैलेगा, वे लांछित होंगे। उनका यश, कीर्ति-सब कुछ भस्मीभूत हो जाएगा। रुष्ट प्रजा और कीर्ति मलिन सम्राट् एक साथ नहीं रह पाएंगे...समाधान एक ही है मां! कि राम स्वयं वन चला जाए।''

''पर राम!...''

''अब तर्क न करो मां।'' राम अपनी मोहिनी मुस्कान अधरों पर

ले आए, ''नहीं तो तुम्हारा राम हार जाएगा।''

राम ने सुमित्रा और कौसल्या के चरण छुए। सहज गति से बाहर चले गए। कौसल्या की दृष्टि राम का अनुसरण करती रही।

सुमित्रा ने अपनी भीगी आँखें पोंछ लीं, ''तुम्हारी दुष्टता का भी अंत नहीं राम।...''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पंद्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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