उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
सीता प्रतीक्षा कर रही थीं।...प्रातः ही राम को बुलाने, सुमंत आ गए थे। उन्होंने कहा था कि पिता से मिलकर वह शीघ्र ही लौट आएंगे। अब तक आए नहीं राम!...सुमंत भी काफी चिंतित लग रहे थे। जाने चिंता किस बात की थी। संभव है, सुमंत की अपनी कोई निजी चिंता हो। संभव है, बहुत अधिक कार्य से वह परेशान हो उठे हो, संभव है राम के विषय में ही चिंतित हों।
राम के विषय में चिंता? रघुकुल के शक्तिशाली सम्राट् के ज्येष्ठ पुत्र के विषय में चिंता? प्रजा उनसे प्रेम करती है, मंत्री उनके शील पर मुग्ध हैं, राज-परिषद् ने एकमत से उनके अभिषेक का निर्णय किया है। उस राम के विषय में किसी को चिंता हो सकती है? और राम के व्यक्तिगत शौर्य से सीता भली प्रकार परिचित हैं...
सीता मन-ही-मन पुलकित हो उठीं। ऐसे राम के विषय में क्या चिंता? पर वे अभी तक लौटे क्यों नहीं? वे कहीं और तो नहीं चले गए।
संभव है, किसी काम से या वैसे ही मिलने के लिए माता कौसल्या के पास गए हों। कौसल्या जैसी पति-प्रताड़िता स्त्री को राम जैसा पुत्र ही जिला ले गया। एक पक्ष यदि पूर्णतः स्नेह शून्य था तो दूसरे पक्ष ने उसकी भरपूर क्षतिपूर्ति की।...पुत्र और माता का यह प्रेम, सीता के मन को सदा ही तरल कर देता था...।
राम आए। उनकी मुद्रा गंभीर थी। सीता चकित हुईं-क्यों इतने गंभीर हैं? कदाचित् राज्य-कार्य संबंधी कोई चिंता हो।...सहसा, सीता के मन में आनन्द की धारा फूट निकली। उन्होंने वक्र होंठों से मुस्काते हुए, नयनों की कोरों से राम को देखा-कहीं परिहास के लिए अभिनय तो नहीं कर रहे हैं! स्वभाव से अत्यन्त गंभीर होते हुए भी, कभी-कभी हल्के क्षणों में राम अपने ऐसे ही कौतुक-भरे अभिनय से सीता को परेशान कर देते हैं, पर जब सीता बहुत चिंतित हो उठती हैं, तो खिलखिलाकर हँस पड़ते हैं।...आज फिर वैसी ही मुद्रा बनाए हैं।...
''यह किस नाटक की भूमिका है? नटी का क्या रूप होगा?''
पहली बार, राम की गंभीरता उदासी में परिवर्तित हुई। प्रातः पिता के सम्मुख जाने से अब तक पहली बार उन्होंने स्वयं को ढीला छोड़ा। पिता की बात और थी-वे चिंतित थे, वृद्ध थे और कैकेयी के मोह में बंधे थे; माता कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी की बात भी भिन्न थी; उन सबके अपने मोह और अपनी सीमाएं थीं।...पर सीता के सम्मुख अपनी चिंताएं, द्वन्द्व और आशंकाएं प्रकट कर सकते हैं। अपनी पत्नी के सम्मुख मन नहीं खोल सके, तो फिर कहीं नहीं खोल सकेंगे...
''अभिषेक नहीं होगा। चौदह वर्षों के दंडक-वास का आदेश हुआ है।'' राम बोले, ''नहीं जानता प्रसन्न होने की बात है अथवा उदास होने की। जाना तो था ही, पर निर्वासन...।''
सीता ने राम को निहारा। नहीं यह परिहास नहीं है। उनकी मुद्रा, उनकी वाणी, उनके हाव-भाव बता रहे हैं, यह नाटक नहीं है-अभिनय नहीं है। यह यथार्थ है। तभी तो प्रातः सुमंत इतने उदास थे...
सीता की मुद्रा के साथ-साथ उनकी वाणी भी गंभीर हो गई, ''आप इस आदेश का पालन करेंगे?''
''और कोई विकल्प नहीं।''
सीता ने संपूर्ण अस्तित्व, अपनी आँखों में भरकर, राम को पूरी तन्मयता के साथ देखा। एक गहन चिंतन से उबरकर, निर्णय तक पहुंचने की स्थितियां, उन्होंने चमत्कारिक शीघ्रता से पार कीं; और बोलीं, ''विकल्प नहीं है तो आदेश को हँसकर सिर-माथे पर लेना होगा। क्या-क्या तैयारी कर लूं?''
राम मुग्ध हो उठे। परेशानी खो गई। सीता वास्तविक संगिनी थीं। उन्होंने यह नहीं पूछा कि वनवास का आदेश किसने दिया, क्यों दिया, उस आज्ञा को स्वीकार करने की बाध्यता क्या है...सीता ने इस निर्णय से टलना नहीं चाहा, समझने का प्रयत्न नहीं; हठ नहीं...। एक क्षण के लिए भी शंका नहीं, द्वन्द्व नहीं, संकोच नहीं...जिसकी संगिनी ऐसी हो, उसे किसी और का सहारा क्या करना है?...
''तुम तैयारी क्यों करोगी सीते? वन मैं जा रहा हूँ; तुम्हें किसी ने राजप्रासाद छोड़ने को नहीं कहा।''
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