उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
''धैर्य न छोड़ो वत्स त्रिलोचन!'' कालकाचार्य का स्वर और भी दुर्बल हो गया, ''मुझे अपनी बात कहने दो, फिर मैं तुम्हारी बात भी सुनूंगा।'' और वह अपनी बात आगे बढ़ा ले गए, ''मैंने कभी नहीं चाहा कि राम हमारी रक्षा करें। मैंने यहां विद्याभ्यास के लिए आश्रम स्थापित किया था, युद्ध शिविर नहीं बनाया था। राम क्षत्रिय हैं। मेरी प्रवृत्ति, क्षत्रिय-प्रवृत्ति नहीं है। मैं नहीं चाहता था कि शस्त्र-निर्माण और शस्त्राभ्यास से मैं राक्षसों के क्रोध और विरोध को आमंत्रित करूं।... और मैं देख रहा हूँ कि मैं भूल नहीं कर रहा था। जिस-जिस आश्रम में राम के शस्त्र-दर्शन का प्रवेश हुआ, वहीं-वहीं राक्षसों के क्रोध की उल्का गिरी।...और अब भरत की सेना आई है। उसके लिए भी राक्षस हमें ही दोषी मानते हैं! यदि हम राम के इतने निकट न होते, तो राक्षस हमारे ही आश्रम के ब्रह्मचारियों को पकड़कर न ले जाते। मुझे लगता है, राम एक प्रचंड अग्नि हैं-अग्नि पवित्र ही सही; किंतु उसका नैकट्य ताप भी देता है...अभी तो भरत की सेना और राक्षसों में कहीं भिड़न्त नहीं हुई। यदि हो गई, तो राक्षस अयोध्या की प्रशिक्षित सेना का तो विरोध नहीं कर पाएंगे। उनका कुंठित क्रोध, फिर हम पर ही प्रहार करेगा। इसलिए मेरा विचार है कि यह स्थान अब सुरक्षित नहीं रहा। हमें यहां से हटकर, राम से दूर चला जाना चाहिए...''
''आर्य कुलपति!'' जय उठकर खड़ा हो गया। उसका चेहरा तमतमाया हुआ था; और स्वर क्रोध से कांप रहा था, ''आपने दूसरों का मत सुना ही नहीं, और अपना निर्णय दे दिया। यह आश्रम की रीति के अनुकूल नहीं है।''
कालकाचार्य में आश्रम के कुलपति का तेज नहीं जागा। वे सहम गए। उन्हें जय का तमतमाया चेहरा, जैसे डरा गया था।
''यह निर्णय नहीं है; मेरा प्रस्ताव है वत्स! मेरी निजी राय! तुम लोग अपने विचार व्यक्त करने में पूर्णतः स्वतंत्र हो।''
''फिर मेरा प्रस्ताव सुनें आर्य कुलपति।'' जय ने आज एक बार भी कालकाचार्य को गुरुवर कहकर संबोधित नहीं किया था; जैसे उनके गुरुत्व को भूलकर, केवल अधिकारिक पद को ही देख पा रहा था, ''शशांक, त्रिलोचन, आनन्द, कुवलय तथा मेरा-हम पाँचों का मत है कि हम लड़े या न लड़े, राक्षस हमसे लड़ेंगे। हम निःशस्त्र हों तो भी मरेंगे। विकल्प हमारे हाथ में नहीं है। यदि मरना ही है तो सशस्त्र होकर मरें। कदाचित् तब मरना अनिवार्य न रहे। इसलिए हम तत्काल राम के आश्रम पर चलें।
उनसे मिल-कर सारी स्थिति स्पष्ट करे। उनसे शस्त्र तथा युद्ध विद्या की सहायता तथा सहयोग मांगें; और आत्मरक्षा में समर्थ होकर, न केवल गौरव और स्वाभिमान के साथ जीवित रहें, वरन् राक्षसों से अपने अपमान का बदला भी लें। इसके लिए यदि आवश्यक हो तो राम, लक्ष्मण, सीता तथा उनके अन्य आश्रमवासियों को अपने साथ रहने के लिए आमंत्रित करे; या हम अपना आश्रम उनके आश्रम मे विलीन कर दें। और किन्ही कारणों से यह संभव न हो, तो दोनों आश्रमों की भौतिक दूरी तो समाप्त कर ही दें।''
''हम इस प्रस्ताव का पूर्ण समर्थन करते हैं।'' जय के घायल मित्र पूरे जोर से चिल्लाए।
''नहीं'' कालकाचार्य का स्वर भय तथा आवेश से कंपित होने के कारण चीत्कार बन गया, ''मतभेद तथा व्यक्तिगत विचार-स्वातन्त्र्य का समर्थक होने पर भी मैं आत्मघाती प्रस्तावों पर विचार करने की अनुमति नहीं दे सकता। मेरे मस्तिष्क में यह बात स्पष्ट है कि हम युद्ध-व्यवसायी नहीं हैं; जो राम की मूल-वृत्ति है, वे जहां रहेंगे वहां आसपास शस्त्र व्यापार चलता ही रहेगा। कल की जिस घटना से तुम लोग इतने उत्तेजित और सुख हो उठे हो; मुझे लगता है, वह तो भविष्य का आभास-मात्र है। तुम लोग स्वयं सोचो, कल जब अयोध्या की इतनी बड़ी और शक्तिशाली सेना की छावनी यहां से उखड़ ही रही थी, अर्थात सेना अभी यहीं विद्यमान थी, तब भी राक्षस इतना दुस्साहस कर गए। भविष्य में जब कोई सेना आस-पास नहीं होगी, तब राक्षसों का साहस और कितना बढ़ जाएगा! भविष्य की उन भयंकर दुर्घटनाओं से अपना बचाव करने के लिए ही, मैंने यह निश्चय किया है, तपस्वीगण! कि हम यहां से हटकर अश्व मुनि के आश्रम के निकट जा बसेंगे। राम, राक्षसों की निरंतर उत्तेजना का कारण हैं। हम उनके निकट रहकर, सदा-सदा के लिए राक्षसों के क्रोध के पात्र नहीं बनना चाहते।...'' और सहसा कुलपति का स्वर ऊंचा हो गया, ''इस विषय में वाद-विवाद की अनुमति मैं नहीं दूंगा। यह मेरा अंतिम निश्चय है; और आश्रमवासियों के लिए आज्ञा है। इस आशा की अवहेलना का दंड, आश्रम से स्थायी निष्कासन होगा।''
''तो हम स्वयं को इसी क्षण से आश्रम से निष्कासित समझते हैं।'' आनन्द इस सारे वार्तालाप में पहली बार बोला था। उसका चेहरा दृढ़ और सहज था। स्पष्ट था कि उसने यह बात आवेश में नहीं कही थी-यह उसका सुचिंतित मत था। जय, कुवलय, शशांक और त्रिलोचन भी उसके निर्णय के समर्थन में उठकर, उसके पीछे खड़े हो गए थे।
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