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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14994
आईएसबीएन :9788181431950

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अवसर

कालकाचार्य का आवेश लुप्त हो गया। उन्हें जैसे अपने आवेश का यह परिणाम ज्ञात नहीं था, अथवा वह घटनाओं को यह मोड़ नहीं देना चाहते थे। वे आश्चर्यजनक ढंग से बदले हुए कोमल और स्नेहयुक्त स्वर में बोले, ''मैं यह कभी नहीं चाहूँगा वत्स! कि मेरा कोई शिष्य किसी मतभेद के कारण, मेरा आश्रम छोड़कर चला जाए। यह वैसा ही है जैसे कोई पुत्र पिता का घर छोड़ दे।...और तुम पाँचों ही मुझे बहुत प्रिय हो। मैं किसी भी रूप में तुमसे विलग नहीं होना चाहूँगा। मेरी बात समझने का प्रयत्न करो वत्स! मैं अग्नि को स्वयं से दूर रखने का प्रयत्न कर रहा हूँ, ताकि उसका प्रकाश तो हमें मिले, किन्तु उसका ताप हमें दग्ध न करे। और तुम चाहते हो कि मैं अग्नि को अपनी कुटिया में ले आऊं, ताकि मेरा आश्रम जलकर भस्म हो जाए।''

कालकाचार्य की कोमलता ने आवेश पर ठंडे छींटे डाल दिए थे। किसी ओर से कोई प्रत्युत्तर नहीं आया, जैसे सब कुछ शांत हो चुका हो।

पर तभी कुवलय उठकर अपने ठहरे हुए मंद स्वर में बोला, ''आर्य कुलपति! आपका और हमारा दृष्टिकोण पर्याप्त भिन्न है, यह स्पष्ट हो चुका है। किंतु, मतभेद का अर्थ, अनिवार्यतः विरोध नहीं होता। आप हमें आश्रम से निष्कासित नहीं करना चाहते; और न ही यह हमारी इच्छा है कि हम आपसे दंडित होकर, अथवा आपसे झगड़कर आश्रम से पृथक हों। इसलिए गुरुवर! एक निवेदन है, आप चाहे तो आश्रम को अश्व मुनि के आश्रम की ओर ले जाने की तैयारी करें; किंतु साथ हीं हमें यह अनुमति दें कि हम भद्र राम से मिलकर, इस विषय में उनका मत जानने का प्रयत्न करें। यदि वे सहमत हो गए तो हम पाँचों आपकी अनुमति से, उनके आश्रम की सदस्यता स्वीकार करना चाहेंगे।...और यदि हमें ग्रहण करने को वे तैयार नहीं हुए, तो हम पूर्ववत् आपके शिष्य हैं-अत: आश्रम के अनुशासन में बंधे आपके साथ जाएंगे...''

कालकाचार्य का स्नायविक तनाव ढीला पड़ा। कुवलय ठीक कह रहा था-वे राम के पास जाना चाहें तो जाएं, इसमें क्या संकट है।

वे न राक्षसो का विरोध चाहते हैं; न राम का और न अपने शिष्यों का...

"ठीक है वत्स। तुमने बिल्कुल ठीक कहा। तुम लोग आज ही राम से मिलने चले जाओ। भरत की सेना लौट चुकी है, अतः राम से मिलने में कोई बाधा नहीं है। कल प्रातः मुझे अपने और राम के निश्चय की सूचना दो। हमारा प्रस्थान, कल मध्याह्न तक रुका रहेगा।''

अपनी कुटिया के बाहर, अपराह्न की धूप में राम और सीता, कुछ अलसाए-से बैठे थे। दोनों ही पिछले दो-तीन दिनों में घटी घटनाओं से ऊब-डूब रहे थे। बात प्रायः कोई भी नहीं कर रहा था।

''भैया! कुलपति कालकाचार्य के आश्रम के ब्रह्मचारी आए हैं।''

राम ने सिर उठाकर देखा। आगे-आगे जय था। इसे राम ने कई बार कालकाचार्य के आश्रम में देखा था। आते-जाते, कभी-कभार बातें भी हुई थी। जय ने कई बार धनुष-बाण तथा अन्य शस्त्रों में रुचि भी दिखाई थी। अन्य ब्रह्मचारियों के चेहरे भी कुछ परिचित-से थे, किंतु राम उन्हें ठीक-ठीक पहचानते नहीं थे।

''आओ! बैठो मित्र!'' राम ने मुखर द्वारा लाए गए आसनों की ओर संकेत किया।

''आर्य! ये भील-कला के आसन, आपके यहां कैसे?'' कुवलय ने कुछ आश्चर्य से पूछा।

''ये आसन, मैंने और सुमेधा ने मिलकर बनाए हैं।'' सीता बोलीं, ''सुमेधा भील-कन्या ही है। मैंने उसी से यह विद्या पाई है। तुम्हें भील-कला वाले आसन पर बैठने में कोई आपत्ति तो नहीं ब्रह्मचारी!'' वैदेही मुस्कराई'', "इधर जाति-विभाजन पर बल कुछ अधिक ही है।"

'नहीं देवि!'' कुवलय झेंप गया, ''मैंने तो केवल जिज्ञासावश पूछ लिया था। आश्रमों में इस प्रकार के आसन, सामान्य बात नहीं है।''

"बैठो मित्र!'' राम पुनः बोले, "मेरी भी जिज्ञासा है-तुम पाँचों ही घायल प्रतीत होते हो। औषधि और पट्टियां अभी गीली ही हैं। यह क्या है मित्र! मृगया अथवा राक्षसों से मुठभेड़?''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पंद्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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