उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
"हम इसी संदर्भ में आपसे मिलने आए हैं राम!'' जय बोला, ''आने में कुछ विलय अवश्य हुआ। कल अयोध्या की सेना लौट रही थी; अतः आप तक पहुंचने के लिए मार्ग, मिलना कठिन था, और आज अपने कुलपति से विचार विमर्श में विलंब हो गया।''
''ठीक कहते हो ब्रह्मचारी।'' राम गंभीर हो गए, ''इसी कारण पिछले तीन दिनों से मैं चित्रकूट से कटकर अपने आश्रम में सीमित हो गया था। इस बीच आश्रम में बहुत कुछ घटित हुआ है मित्र!''
''यहां ही नहीं आर्य। इस सारे प्रदेश में बहुत कुछ घटित हुआ है।'' शशांक का स्वर कुछ तीखा था, ''कहीं किसी का सिर कटा, कहीं किसी का पांव। कहीं आग लगी, और कहीं हम जैसों को घेरकर बन्दी किया गया, और राक्षस बस्तियों में ले जाकर कशा के आघातों और तप्त शलाकाओं से दग्ध किया गया...''
''क्या लाभ अयोध्या की इतनी बड़ी सेना का'', राम जैसे अपने आप से कह रहे थे, ''जिसने जन-सामान्य को सुरक्षा देने के स्थान पर असुरक्षित कर दिया।''
''किसने बन्दी किया?'' लक्ष्मण की उग्रता प्रकट होने लगी थी।
''राक्षसों ने!''
''क्यों?'' मुखर ने पूछा।
''वही बताने के लिए, हम उपस्थित हुए हैं।'' जय बोला।
''कहो! मैं सुन रहा हूँ।'' राम उसके चेहरे की ओर देख रहे थे।
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