उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
सत्रह
कालकाचार्य ने जाने वाले तपस्वियों, छकड़ों पर लदे सामान, छकड़ों में जुते बैलों, बैलों को हांकने वाले गाड़ीवानों इत्यादि पर अन्तिम बार निरीक्षण करती दृष्टि डाली। वे व्यवस्था से संतुष्ट थे। आकृति पर आश्वस्ति के चिह्न एकदम स्पष्ट थे, और साथ ही किसी विकट विपत्ति से मुक्त हो जाने का आह्लाद भी था।
उन्होंने मुड़कर, इन सारी तैयारियों से अलग, एक ओर हटकर खड़े हुए राम की ओर देखा : राम, सीता तथा लक्ष्मण साथ-साथ खड़े थे, और उनके पीछे जय तथा चारों मित्र खड़े थे। कुलपति का चेहरा कुछ विकृत हुआ, जैसे मुख का स्वाद कडुवा हो गया। किंतु उन्होंने तत्काल स्वयं को संभाल लिया। वे सायास मुस्कराये, और सहज होने का भरसक प्रयत्न करते हुए, चलकर उन लोगों के समीप आए।
''वत्स राम! अब हमें विदा दो।'' कुलपति अत्यन्त औपचारिक स्वर
मे बोले, ''बड़ी इच्छा थी कि हम यहां साथ-साथ रहते, अथवा तुम हमारे साथ, अश्व मुनि के आश्रम में चलते। कितु तात। शायद यह संभव नही है। पर जाते-जाते भी, मैं तुम्हें एक परामर्श दूंगा। यद्यपि तुम वीर और साहसी हो, युद्ध विद्या में कुशल हो-फिर भी यह स्थान ऐसा नहीं है, जहां तुम अपनी युवती पत्नी के साथ सुरक्षित रह सको। वत्स। तुम भी इन लोगों को लेकर, किसी सुरक्षित स्थान पर चले जाओ।'' उन्होंने रुककर, राम के पीछे खड़े तपस्वियों को देखा, ''और मेरे इन ब्रह्मचारियों की रक्षा करना। भगवान तुम्हारा भला करें।''
राम ने शांत भाव से कुलपति की बात सुनी और हल्के-से मुस्करा दिए। लक्ष्मण ने एक बार उद्दंड आँखों से कुलपति को ताका और वितृष्णा से मुख मोड़ लिया। राम और सीता ने झुककर, कुलपति के चरण छुए; और अन्य लोगों को मार्ग देने के लिए एक ओर हट गए।
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