उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
''नहीं पुत्रि।'' ऋषि हंसे, ''प्रतिरोध करेगी जागरूक तथा चैतन्य, भ्रष्ट व्यवस्था के दोष समझने वाली, अपने श्रम से आजीविका अर्जित करने वाली जनता। ये दो धनुर्धर तो उसके संकल्प के प्रतीक मात्र हैं। यदि कोई यह समझता है कि दो व्यक्ति विश्व की प्रवृत्तियों को रोक सकते है, तो यह भ्रम है। वह प्रभावित कर सकते हैं। वैसे, राक्षसत्व प्रकृति का अनघड़ और आदिम रूप है, प्रत्येक युग उसका अपने ढंग से विरोध करता है। ये धनुर्धर उसका विरोध करने वाले न तो पहले व्यक्ति हैं न अंतिम होंगे। यह संघर्ष तो चिरंतन है, कभी तीव्र होता है, कभी मंद। कहीं केंद्रित होता है, कहीं विक्रेंद्रित। आज भी प्रयाग से अधिक यह चित्रकूट में है, चित्रकूट से अधिक जनस्थान में और जनस्थान से अधिक किष्किंधा में और उससे भी अधिक लंका में।''
राम कुछ विस्मित हुए, ''ऋषिश्रेष्ठ। जनस्थान के विषय में मुझे गुरु विश्वामित्र ने बताया था, किंतु किष्किंधा और लंका के विषय में मुझे ज्ञात नहीं था। वहां कौन रावण का विरोध कर रहा है?''
''व्यक्ति रावण से अधिक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति रावण है।'' ऋषि बोले, ''विरोध उस दुष्ट प्रवृत्ति और भ्रष्ट व्यवस्था का है, जिसका अधिनायकत्व रावण कर रहा है। जनस्थान में अगस्त्य और पुत्री लोपामुद्रा उससे जूझ रहे हैं, सशस्त्र जन-बल तैयार कर। किष्किंधा में बालि का छोटा भाई सुग्रीव; उसके सहयोगी हनुमान और जामवंत, यहां तक कि बालि का तरुण पुत्र, अंगद भी, रावण के निरन्तर वर्त्तमान प्रभाव से प्रतिदिन उलझ रहे हैं। किंतु उनकी समस्या और भी विकट है। उनका अवधपति बालि, स्वयं राक्षस नहीं है। वह एक प्रकार का प्रजापाठी और कर्मकांडी व्यक्ति है, जो उसे धार्मिकता का आवरण प्रदान करता है, किंतु उसमें कुछ दुर्बलताएं हैं। वह स्त्री-लोलुप और कामी है। फिर रावण का मित्र होने के कारण न केवल वह अधिकाधिक सुविधाजीवी होता जा रहा है, तथा प्रजा की उपेक्षा कर रहा है; वरन रावण के बढ़ते हुए प्रभाव का विरोध भी नहीं कर रहा है। सुग्रीव और उसके साथी, विकास मान दुष्टता को देख रहे हैं, और भीतर ही भीतर ऐंठ रहे हैं। और अन्त में, स्वयं रावण के अपने घर में विभीषण और उसके मुट्ठी-भर साथी हैं। विभीषण रावण का भाई होते हुए भी, उसकी किसी नीति से सहमत नहीं है, किंतु रावण के सम्मुख वह पूर्णतः अशक्त है। राघव! आज राक्षसी शक्तियां संगठित हैं, और मानवीय शक्तियां बिखरी हुई हैं। विजय संगठन की होती है। अतः राक्षसी तंत्र का व्यंस करने का श्रेय भी उसी व्यक्ति को मिलेगा, जो राक्षस-विरोधी शक्तियों का संगठन करने में सफल होगा...''
सहसा भारद्वाज अत्यन्त भावुक हो उठे, ''मेरी विडंबना यह है राम! मैं शरीर से यहां बैठा हूँ। आत्मा मेरी लोपामुद्रा और अगस्त्य में बसती है। उन्होंने राक्षस-विरोधी इस संघर्ष को, चिंतन के धरातल से कर्म के धरातल पर उतार दिया। संघर्ष केवल सिद्धान्त के धरातल पर होता है तो प्रवृत्ति का विरोध कर व्यक्ति के साथ समझौता कर जी लेते हैं; किंतु संघर्ष के कर्म-धरातल पर उतरने के पश्चात समझौता नहीं होता, समन्वय नहीं होता, सह-अस्तित्व नहीं होता।''
भारद्वाज मौन भी नहीं हुए, किसी और लोक में लीन हो गए। अन्य कोई और व्यक्ति भी नहीं बोला। चारों ओर निस्तब्धता छा गई। सीता ने दृष्टि उठाकर राम को भी देखा : वे भारद्वाज से कम लीन नहीं थे। इतने लीन वह कभी-कभी ही होते थे, और तभी होते थे, जब उनके मन में कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण घटित हो रहा होता था, और उनका निश्चय करने का क्षण होता था; जब कोई विचार, कर्म में परिणत हो रहा होता था...और लक्ष्मण! लक्ष्मण के मन में जो कुछ था, वह सब उनके मुख-मण्डल पर प्रतिबिंबित था, वे उग्र से उग्रतर होते जा रहे थे...
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