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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14994
आईएसबीएन :9788181431950

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अवसर

''भैया! हम यहां से कब चलेंगे?'' सहसा लक्ष्मण ने पूछा। अपनी अन्तर्मुखी दृष्टि से, क्षण भर राम ने प्रश्न-वाचक मुद्रा में लक्ष्मण को देखा और दूसरे ही क्षण वे खिलखिलाकर हँस पड़े, ''ऋषिश्रेष्ठ! आपकी बातों ने लक्ष्मण के उग्रदेव को जगा दिया है। उन्हें न्यायान्याय, मानवता और राक्षसत्व की संघर्ष-भूमि में पहुंचने की जल्दी मच गई है। वे अब इस आश्रम में अधिक रुक नहीं पाएंगे।"

भारद्वाज मुस्कराए, ''मैं कब से कामना कर रहा हूँ कि जन-मन में उग्रदेव जागे। मेरी बातों ने लक्ष्मण के उग्रदेव को जगाया है, तो मैं धन्य हुआ राम! पर पुत्र सौमित्र! संध्या का समय है। इस समय यात्रा उचित नहीं। आज रात मेरे ही आश्रम में आतिथ्य ग्रहण करो, प्रातः प्रस्थान करना। मेरे शिष्य अगले पड़ाव तक तुम्हारे साथ जाएंगे : शस्त्रास्त्रों के परिवहन में तुम्हारी सहायता करेंगे।''

''यही उचित होगा।'' राम बोले, ''क्यों वैदेही?''

"देवर की क्या इच्छा है?'' सीता ने लक्ष्मण की ओर देखा।

"जे ऋषिश्रेष्ठ का आदेश हो।'' लक्ष्मण आक्रोश को दवा रहे थे।

भारद्वाज-शिष्यों के साथ, यमुना पार कर चित्रकूट की ओर बढ़ते ही राम के सम्मुख प्रकृति का भेद स्पष्ट हो गया। यह भूमि प्रयाग की भूमि के समान उपजाऊ नहीं थी। कहीं-कहीं बड़े पेड़ भी थे, किंतु अधिकांश धरती छोटी-छोटी झाड़ियों तथा लम्बी सूखी, पीली घास से ढकी हुई थी। नंगी धरती में से सफेद पत्थर की शिलाएं निकली हुई दिखाई देती थी। निश्चित रूप से, इनमें चूना बहुत अधिक मात्रा में विद्यमान था, कदाचित् इसी अनउपजाऊ पथरीली भूमि के कारण न तो प्रयाग की ओर से आबादी इस ओर बढ़ी थी; न ही चित्रकूट के आश्रमों ने ही इस ओर बढ़ने की प्रवृत्ति दिखाई थी।

पथरीली भूमि के पार हो जाने पर धरती मनोहर हो गई थी; और मिट्टी की ऊंची-नीची पहाड़ियां मिलने लगी थीं। स्थान-स्थान पर ताल-तलैया और छोटी-छोटी जल-धाराएं भी दिखाई पड़ रही थीं जिनके किनारे-किनारे पर्याप्त हरियाली थी। किंतु यह मैदानी क्षेत्र नहीं था-अतः आवागमन की सुविधा नही थी। कदाचित् इसी कारण जनसंख्या विरल ही थी।

 पयस्विनी नदी पार करते ही वाल्मीकि आश्रम की सीमा आरंभ हो गई थी। आश्रम के चिन्ह प्रकट होते ही, राम ने अपने पग रोक लिए। उनके पीछे आते हुए लक्ष्मण, सीता तथा भारद्वाज शिष्य भी रुक गए। राम ने अपने हाथों से खड्ग, कंधों से धनुष तथा पीठ पर दोनों ओर बंधे हुए भारी-भरकम तूणीर उतारकर पृथ्वी पर रख दिए। यह संकेत था कि यहां अधिक देर तक रुकना पड़ सकता है। सबने, अपने कंधों, बाहुओं तथा अपने हाथों के शस्त्र भूमि पर रख दिए।

आश्रम की मर्यादा के अनुसार, सशस्त्र वे भीतर जा नहीं सकते थे; और शस्त्रों को इस एकांत बन में छोड़कर, स्वयं आश्रम के भीतर चले जाना, उचित नही था। राम ने लक्ष्मण की ओर देखा।

"मैं ऋषि के दर्शन कर अनुमति ले आऊं?''

"यही करना होगा।'' राम मुस्कराए।

लक्ष्मण शस्त्रहीन हो, आश्रम के मुख्य द्वार की ओर बढ़ने ही वाले थे कि चार अपरिचित ब्रह्मचारियों ने उनके सम्मुख आ, हाथ जोड़, सम्मानपूर्वक प्रणाम किया।

राम ने देखा, वेश सब का एक ही था; किंतु वर्ण, आकृति का भेद स्पष्ट कह रहा था कि वे ब्रह्मचारी विभिन्न जातियों से सबद्ध थे। दो गौर वर्ण के थे, दो पीताम-वर्णी थे। उनके शरीर पर भूरे रंग के पतले लंबे लोम थे, निश्चित रूप से इस प्रदेश से कुछ अन्य आर्येतर जातियों की आबादी भी आरम्भ हो गई थी। वाल्मीकि आश्रम में जाति-मिश्रण है, तो अन्य आश्रमों में भी यही स्थिति होगी।

''आर्य! कुलपति ऋषि वाल्मीकि की ओर से हम आपका स्वागत करते हैं। वे आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।''

सीता चकित रह गईं, "ऋषि को आगमन की सूचना कैसे मिली?''

"देवि! यह तो ऋषि ही बता सकेंगे।'' राम ने अपने तूणीर पीठ पर बांध धनुष कंधों पर टांगे, खड्ग हाथ में ले लिए।

ब्रह्मचारी सहायतार्थ आगे बड़े, किंतु राम ने उन्हें रोक दिया, ''अभी तुम्हारी सहायता की आवश्यकता नहीं।'' वह मुस्कराए, ''आवश्यकता होने पर तुम्हें कष्ट करना होगा।''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पंद्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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