उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
तभी लौटकर राम, बाड़े के फाटक पर पहुंचे। वे कालकाचार्य से हुई बातचीत पर विचार करते हुए, आत्मलीन से चले आ रहे थे। अभ्यस्त हाथ बाड़े का फाटक खोलने के लिए आगे बढ़े, तो ध्यान आया कि फाटक तो खुला है। दृष्टि उठाकर देखा, तो चौंक उठे : सुमेधा भागी हुई, कदाचित् मुखर की कुटिया की ओर जा रही थी। सीता खड्ग लिए हुए द्वंद्व-युद्ध के लिए तत्पर थीं और एक राजसी पुरुष, लंबा खड्ग लिए, सीता पर प्रहार करने जा रहा था।
राम की शिराओं का रक्त एकदम उफन पड़ा : कौन है यह दुस्साहसी राज-पुरुष। वह उनकी पत्नी पर प्रहार करने जा रहा था। सीता कितनी ही साहसी और सक्षम क्यों न हों, कदाचित् एक दक्ष और अभ्यस्त योद्धा का सामना अभी नहीं कर सकतीं। राम को तनिक भी विलंब हो गया होता, तो यहां कोई दुर्घटना घट गई होती...तुंभरण के वध के बाद से राम जैसे आशंका-रहित हो गए थे; किंतु यह स्थान उतना सुरक्षित नहीं था...राम अपना खड्ग नग्न कर, झपटे; और कूदकर सीता और उस पुरुष के मध्य, आ खड़े हुए। सीता और आगंतुक दोनों ही चौंक पड़े।
सीता का सारा भय और समस्त आशंकाएं, क्षणांश में विलुप्त हो गईं। उनके राम आ गए थे और राम संसार के किसी भी योद्धा को द्वंद्व की चुनौती दे सकते थे। वे सहज और शांत हो गईं।
सीता ने देखा, राम का क्षोभ भी समाप्त हो चुका था। आत्मविश्वासी राम निश्चिंत मुद्रा में खड्ग लिए खड़े थे, जैसे उनके सामने खड्गधारी योद्धा न हो, कोई चूहा खड़ा हो...चूहा नहीं, कौआ। साधारण कौआ, जिसे हुश्काकर, डराकर भगा दिया जाए।
आगंतुक राम को देखकर भी संकुचित नहीं हुआ था। अपने दुष्कृत्य के लिए वह रंचमात्र भी लज्जित नहीं था। उसने अपनी ओर से राम पर जोरदार आक्रमण किया। पर राम उससे जैसे खड्ग-युद्ध नहीं कर रहे थे, खेल रहे थे। उन्होंने खड्ग को लाठी के समान, जोर से चलाया।
आगंतुक का खड्ग उसके हाथ से निकल, हवा में उड़ता हुआ, दूर जा गिरा।
''यह तो एकदम ही कौआ निकला। किसी को असावधान पाकर, झपट पड़ने में ही उसका बल था।'' सीता मुसकरा पड़ीं।
आगंतुक राम का सामर्थ्य पहचान, भय से पीला पड़ गया। वह उलटकर भागा...राम ने खड्ग से प्रहार नहीं किया। लपककर उसके मार्ग में टांग अड़ा दी। आगंतुक धड़ाम से पृथ्वी पर आ गिरा।
राम ने आगे बढ़कर उसके कंठ पर अपना पैर जमा दिया।
''सीते! आओ, इसकी वीरता देखो।'' उन्होंने पुकारा।
तब तक मुखर भी हाथ में धनुष-बाण लिए सुमेधा के साथ भागता हुआ आ पहुंचा। राम को आगंतुक के कंठ पर पग धरे देख, वे दोनों ही सहज हो गए, और तेजी से चलते हुए पास आकर ठहर गए।
सीता राम के पास पहुंच गई थीं। राम अपना पग क्रमशः दबा रहे थे। आगंतुक के चेहरे पर, भय के स्थान पर अब क्षोभ था। उसकी आँखें पीड़ा और अपमान से लाल हो रही थीं, ''तुम मुझे नहीं जानते हो राम। तभी यह दुस्साहस कर रहे हो। मैं तुम्हें दंड दिलवाऊंगा।''
''अच्छा! इस क्षेत्र में चोर भी दंड दिलवाने की धमकी देते हैं।'' राम मुसकराए, ''तुम्हें लज्जा तो तनिक नहीं आई दुष्ट! कोई विशेष चीज लगते हो। किससे दंड दिलवाओगे?''
''ब्रह्मा से।'' आगंतुक के चेहरे पर दुश्चरित्र समृद्धि खूब खेली थी।
राम मुस्कराए, ''बह्मा का भय दिखा रहे हो भद्र पुरुष! क्या ब्रह्मा तुम जैसे दुष्टों की रक्षा करते-फिरते हैं? फिर तो मुझे लगता है कि किसी दिन मुझे स्वयं ब्रह्मा से भी निबटना पड़ेगा।''
उन्होंने अपना पैर कुछ और दबाया।
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