उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
"देवि! सुरक्षा किसे प्रिय नहीं।'' शशांक ने कहा, "किंतु राक्षसों के हाथों इतनी यातना सहकर, हम बहुत पीड़ित और अपमानित हैं। परस्पर बहुत सारा विचार-विमर्श कर, हम पाँचों इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि दूसरों की दया पर निर्भर, अपमानित जीवन जीने से, अपने सामर्थ्य के बल पर जिया गया, तेजस्वी जीवन कहीं श्रेष्ठ है। हमने पाया है कि न्याय के संघर्ष से दूर भागना उसे टालना, न्याय को टालना है। अतः व्यक्ति को उसकी उपेक्षा करने के स्थान पर उसे उकसाना चाहिए; और बढ़ना चाहिए-तभी वह न्याय के निकट पहुंच उसे पा सकेगा।'' "बन्धुओ! मैं तो यही कह रहा हूँ।'' लक्ष्मण मुस्कराए, "पर मेरी कोई सुनता ही नहीं।''
''मैं सुन रहा हूँ'' राम ने सस्नेह लक्ष्मण को देखा, ''और इसीलिए यहां बैठा हूँ कि विचार-विमर्श कर, आगे का कार्यक्रम तय कर लें।...हम लोग प्रायः इस विषय में एकमत हैं कि राक्षसों के अन्याय, असमानता तथा शोषणपूर्ण चिंतन, दर्शन और जीवन-विधि से हमारा समझौता नहीं हो सकता। उनसे हमारा संघर्ष अनिवार्य है।''
''एकदम।''
"यदि संघर्ष अनिवार्य है तो उसे ओर उग्र करना चाहिए, ताकि हम न्याय की ओर तीव्रता से बढ़ सकें।...''
"हमारा भी यही विचार है।'' आनन्द बोला, "हमारा वश चले तो हम आज ही राक्षस-बस्तियों पर आक्रमण कर दें।''
"सामूहिक और व्क्तिगत संघर्ष में भेद होता है!'' सीता बोली, ''क्या सर्वत्र व्याप्त इस राक्षसी अत्याचार से संघर्ष कर न्याय प्राप्त करने का एकमात्र यहीं ढंग है, कि हम एक-के-बाद-एक राक्षसों की बस्तियों शिविरों, ग्रामों तथा नगरों पर आक्रमण करते जाएं?''
''नहीं!'' राम बोले, ''उग्र और प्रचंड होने का अभी समय नहीं आया है। संघर्ष की ओर हमें सुयोजित ढंग से योजनाबद्ध रूप में बढ़ना है। हमें अपनी वाणी और कर्म का रूप ऐसा रखना होगा, जिससे राक्षसों के विरुद्ध हमारा संघर्ष दबे नहीं, भड़के। यह व्यक्तिगत संघर्ष नही है। न्याय का संघर्ष एक व्यक्ति का संघर्ष नती होता। हमें समस्त पीड़ित और दलित लोगों को अपने साथ लेकर चलना होगा। जितने भी लोग मानव की समता के आधार पर, एक ऐसे न्यायपूर्ण मानव-समाज के निर्माण के इच्छुक हैं, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के विकास के लिए पूर्ण स्वतंत्रता और सुविधाएं उपलब्ध हों-ऐसे समस्त लोगों को संगठित करना होगा। जहां, थोड़ा-सा भी तेज है, प्रकाश है, संघर्ष है, प्रतिरोध है-उसे जगाए रखना होगा, अपने साथ लिए चलना होगा।''
''अर्थात्?'' जय ने पूछा।
''अर्थात्,'' राम ने समझाने के ढंग से कहा, "चाहे हम खोज-खोज कर न मारें; किंतु यदि कोई राक्षस किसी को पीड़ित करता है, तो हमें पीछे नहीं हटना होगा। हमें अपना मोर्चा संभालना होगा। युद्ध करना होगा। हमारे इस प्रकार के संघर्षशील प्रयत्नों से अन्य लोगों का तेज भी जाग्रत होगा। और ऐसे जितने भी ऋषि अथबा ऋषिकुल यहां हैं, जो इस प्रकार के संघर्ष में विश्वास करते हैं-उन सबसे सम्पर्क स्थापित कर उन्हें बल देना होगा और स्वयं उनसे शक्ति प्राप्त करनी होगी।...''
''आप ठीक कहते हैं आर्य!'' मुखर बोला।
"संघर्ष का आरम्भ उस व्यक्ति से होना चाहिए मित्रो। जो अत्याचार का सीधा सामना कर रहा है। जिन लोगों ने उस अत्याचार के विषय में सुना मात्र है, उससे प्रत्यक्ष संपर्क होने का अवसर नहीं पाया; उनके मन में दाह नहीं है-अतः प्रकाश भी नहीं है। वे लोग ऐसे संघर्ष को मानसिक सहानुभूति दे सकते हैं, उसमें सक्रिय योग नहीं दे सकते।''
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