उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
''आपको आज तक मेरी इच्छा का ही पता नहीं है क्या?'' सीता स्थिर ही नहीं, दृढ़ थी, ''ठीक है कि मुझे अभी अयोध्या में अपने मनोनुकूल कार्य नहीं मिला है; किंतु मैं इतनी खाली भी नहीं हूँ कि शिशु-पालन के बिना दिन न कटता हो।''
''तुम्हारे जीवन में संतान का कोई महत्त्व नहीं है?''
''है पर इतना नहीं कि अपने जीवन का सारा ताना-बाना उसी को केन्द्र में रखकर बुनूं। संतान की ऐसी भी क्या जल्दी कि फिर उसके पालन के लिए किसी सम्राट् सीरध्वज का खेत ढ़ूढ़ना पड़े-। मैं अभी प्रतीक्षा कर सकती हूँ।''
राम मौन हो गए। बात विचारों तक ही नहीं थी, औचक ही सीता की छिपी वेदना बोल उठी थी। राम भीग उठे...किंतु उन्हें भावुकता से बचना होगा। उन्होंने स्वयं को संभाला...।
"प्रतीक्षा चाहे कितनी ही लंबी हो?''
"हां!''
''फिर तो कुल-वृद्धाओं के आक्षेप-उपालंभ भी सुनने ही पड़ेंगे।''
''सुन नहीं रही क्या?'' राम मुस्करा पड़े।
परिचारिका ने बाधा दी, ''आर्य की अनुमति हो तो राजगुरु को सूचित करूं कि आप उनसे मिलने को प्रस्तुत हैं। वे आपके भोजन कर लेने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।''
सीता सावधान हो गईं। राम के गंभीर स्वर में प्रताड़ना का भाव था, ''गुरुदेव प्रतीक्षा क्यों कर रहे हैं सुमुखि? उन्हें प्रतीक्षा करवाने का अधिकार किसी को नहीं है।''
''क्षमा करें कुमार! यह उनकी अपनी इच्छा थी।''
राम ने द्वार तक जाकर अगवानी की। गुरु को आसन पर बैठा, उन्होंने हाथ जोड़ दिए, ''क्षमा करें गुरुदेव! कह नहीं सकता किसके प्रमाद के कारण आपको प्रतीक्षा करनी पड़ी।''
''उद्विग्न न हो राम! जो कुछ हुआ, मेरी ही इच्छा से हुआ।''
''पर क्यों?'' राम सहज नहीं हो पा रहे थे।
''राम!'' वसिष्ठ पूर्णतः शांत थे : ''अयोध्या में कौन नहीं जानता कि राम जन-कार्य में कितना व्यस्त है। पुत्र! मैं अयोध्या से बाहर नहीं हूँ। यह जानकर कि तुम प्रातः के गए, अब लौटे हो; और उस समय दोपहर का भोजन कर रहे हो, जब अन्य लोग संध्या के भोजन की तैयारी कर रहे हैं-बाधा देकर मैं पाप का भागी क्यों बनता?...पर इस विषय को अधिक न खींचो। मैं शुभ और महत्त्वपूर्ण सूचना लाया हूँ।''
''कैसी सूचना है गुरुवर?'' सीता ने पूछा।
''पुत्रि! आज राज-परिषद् ने एकमत से निर्णय किया है कि कल प्रातः राम का युवराज्याभिषेक किया जाएगा...।''
सीता का स्वर हर्षातिरेक से जैसे भर्रा उठा, ''कल प्रातः?''
''हां पुत्रि!'' गुरु बोले, ''समाचार अत्यन्त गोपनीय है।'' अभी तक राजमहल में यह सूचना प्रसारित नहीं की गई। प्रयत्न यही है कि यथासंभव, कम-से-कम लोगों को ही मालूम हो। समाचार तुम्हारे महल से बाहर न जाए तो अच्छा है। तुम लोग प्रस्तुत रहो। पुत्र! अभी जाकर तुम सम्राट् से सभाभवन में भेंट करो। मैं प्रबंध करने जा रहा हूँ। रात्रि से पूर्व, फिर लौटूंगा। कुछ कर्मकांड का विधान करना होगा...''
गुरु उठ खड़े हुए। एक और आकस्मिक घटना। राम जैसे भावशून्य हो गए थे। उन्होंने यांत्रिक ढंग से गुरु को प्रणाम कर, उन्हें विदा किया। सीता ने अपने उल्लास से बाहर निकल, राम को देखा। राम न प्रसन्न थे, न उदास, वह गंभीर थे, चिंतन में मग्न, प्रश्नों से जूझते हुए, भीतर की उथल-पुथल में लीन।
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