उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
सम्राट् की इस मनःस्थिति में उनके सम्मुख रुकना या उनसे प्रश्न करना संभव नहीं था। राम लौट पड़े।
पिता को आशंका थी कि राम का युवराज्याभिषेक कदाचित न हो पाए। उन्हें विघ्न दिखाई पड़ रहे थे? क्यों आशंका थी पिता को? उन्हें कौन-सी बाधाएं दिखाई पड़ रही थीं? दुःस्वप्न। पिता ने कुछ दुःस्वप्नों की चर्चा की थी-कौन-से दुःस्वप्न उन्हें सता रहे थे? निश्चित रूप से पिछले तीन सप्ताहों में सम्राट् ने जो कुछ किया था, वह उन दुःस्वप्नों का ही परिणाम था...
पिता के दुःस्वप्न और राम के द्वन्द्व! पिता के सम्मुख प्रश्न था कि राम का युवराज्याभिषेक हो पाएगा या नहीं? कहीं अभिषेक का अवसर छिन न जाए, किंतु राम के सम्मुख प्रश्न था वह अभिषेक स्वीकार करें या नहीं? विश्वामित्र की मूर्ति प्रश्न-चिहृ बनकर उनके सम्मुख आ खड़ी होती थी, 'नहीं आओगे राम? तुम रघुवंशी होकर अपना वचन भंग करोगे? क्या है तुम्हारे जीवन का लक्ष्य? सोचो! तुम्हारा जीवन सुखभोग के लिए नहीं है। उसके लिए अन्य लोग हैं। तुम भिन्न हो। तुम सार्थक हो राम! तुम शासन-भार नहीं लोगे, तो भरत उसे स्वीकार कर लेगा, लक्ष्मण कर लेगा, शत्रुघ्न कर लेगा पर तुम वन नहीं गए, तो कोई नहीं जाएगा, न भरत, न लक्ष्मण, न शत्रुघ्न।'
पिता एक बात कहते हैं, विश्वामित्र दूसरी...इसी ऊहापोह के मध्य, किसी समय स्वयं राम के अपने मन का भय बोलने लगा : सिंहासन स्वीकार कर लिया, एक बार सम्राट् बनकर बैठ गया तो मेरी मानवीय दुर्बलताएं नहीं जाग उठेंगी क्या? सुविधापूर्ण विलासी जीवन में लिप्त हो, बहानों की आड़ में स्वयं को प्रवंचित नहीं करूंगा? मोह त्यागना बड़ा कठिन होता है। जब तक मोह का रोग न लगे, तभी तक ठीक...यदि मोह-त्याग में मैं सफल भी हो गया तो राज्य के विभिन्न उत्तरदायित्वों से मुक्त कर, कौन मुझे उन गहन वनों में जाने देगा!...न्याय और समता को, मानवता और उच्च चिंतन को, ज्ञान और विद्या को एक रक्षक की प्रतीक्षा है; और उस रक्षक का दायित्व संभालने का वचन राम ने विश्वामित्र को दिया था। सम्राट् बन, अयोध्या में बैठकर, सेना की सहायता से यह कार्य नहीं हो सकता। वेतनभोगी सेनाओं की सहायता से मानव-जाति का भाग्य नहीं बदला जा सकता। वह तो जन-उद्बोधन से ही संभव होगा...अभिषेक हो जाने से वन जाने का अवसर कभी नहीं आएगा।
यह कैसे संभव होगा? पिता की इच्छा और ऋषि को दिया गया राम का वचन...अयोध्या के सिंहासन का दायित्व और वन के रक्षक का कर्त्तव्य...दो कर्त्तव्य और दो दिशाएं...राम की दुविधा का कोई अन्त नहीं है...।
राम को देखते ही, सीता उठकर उनकी ओर आईं, ''मिल आए?''
''हां प्रिये!''
''किसलिए बुलाया था?''
''यह आदेश देने के लिए कि कल अभिषेक करवा लूं।'' राम का स्वर उत्साहशून्य था।
''आपने उनके सामने प्रश्न रखे?''
''वे कुछ भी सुनने की मनःस्थिति में नहीं थे।''
राम की दृष्टि सीता के चेहरे पर टिक गई। सीता की वाणी और आकृति से शंकाओं का सारा कुहरा उड़ गया था। उनका चेहरा आवृत्त वाष्प को पोंछ दिए जाने के पश्चात् अधिक निखर आने वाले दर्पण के समान चमक रहा था। इस उल्लास के सामने क्या कोई संदेह टिक सकता था? क्या राम उनके सामने अपने मन का द्वन्द्व रख सकते थे? अपने दुःस्वप्नों में डूबे सम्राट्, प्रश्न सुनने की स्थिति में नहीं थे; तो क्या पति के युवराज्याभिषेक के उल्लास में मग्न सीता राम के द्वन्द्व या विश्वामित्र के आह्वान को सुनने की मनःस्थिति में थीं? ऐसी बात सुनते ही, उनका उल्लास बिखर नहीं जाएगा? राम इतने क्रूर कैसे हो...
सीता से ही नहीं कह सकते, तो राम अपने मन का द्वन्द्व किससे कहें?
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