उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
दशरथ का कंठ सूख गया। कंठ में स्थान-स्थान पर खड्ग की नोकें उग आई थी। कंठ की नलियां जैसे जल रही थी, और रक्त झरने-सा फूटकर बाहर आने को था। हाथ-पैर टेढ़े हो गए। वर्ण पीला पड़ गया। उन्होंने माथे पर हाथ फेरा, माथा ठंडा और पसीने से गीला था।
बड़ी देर तक दशरथ उसी स्तंभित दशा में बैठे रहे; और सहसा वह सजग हुए-निश्चित रूप से वह बहुत घबराए हुए ही नहीं, डरे हुए भी थे। मन बार-बार कह रहा था, 'कुछ कर दशरथ! यही अवसर है, नहीं तो बड़ी देर हो जाएगी।' पर उनका मन उस छोटे बालक के समान था, जो हाथ में पूरी ईट लिए, हिंस्र भेड़िए के सम्मुख खड़ा सोच रहा था-इंट न मारूं तो यह मुझे खाने में कितनी देर लगाएगा और मारूं तो यह मर जाएगा या कुपित होकर मुझे और भी जल्दी खा जाएगा? भेड़िए की आँखों में क्रोध था, उसकी लाल-लाल हिंस्र तथा लोलुप जीभ मुंह से बाहर लटक रही थी, बड़े-बड़े तीखे, श्वेत दांतों की चमक बढ़ती जा रही थी...
भेड़िया मुझे खाएगा अवश्य, मैं ईट मारूं या न मारूं...दशरथ की चिंता बढ़ती जा रही थी इंट मारूं? न मारूं?
सम्राट् को राजसभा में आने में विलंब हुआ था। विलंब से आना, सम्राट् का नियम नहीं था। अपवाद स्वरूप ही ऐसा होता था। जब कभी ऐसा होता था, सम्राट् जल्दी-जल्दी डग उठाते हुए, सभा में आते थे और सिंहासन पर बैठते ही, बड़ी शालीनता से खेद प्रकट करते थे। उनका व्यवहार अतिरिक्त रूप से विनीत होता था। विलंब के कारण सभासदों को हुई असुविधा की क्षतिपूर्ति का प्रयत्न चलता रहता।
आज वैसा कुछ भी नहीं हुआ। सम्राट् विलंब से आए थे; पर न कोई जल्दी थी, न कोई संकोच। वे स्थिर डगों से दृढ़ चाल चलते हुए आए और जब सिंहासन पर बैठकर उन्होंने आँखें उठाई, तो सबने देखा उनकी आँखें थकीं, किंतु सतर्क थी। संभवतः अपनी किसी चिंता के कारण सम्राट् रात भर सो नहीं पाए थे।
"किन्हीं कारणों से सम्राट् को विलंब हुआ..." महामंत्री ने सम्राट् को चिंतित देखकर अपनी बात आरम्भ की। अपेक्षा की कि सम्राट् कहेंगे, 'हां महामंत्री! चिंतित था, रात भर सो नहीं पाया।'
किंतु सम्राट् ने महामंत्री की ओर दृष्टि उठाई, तो उनके चेहरे का आवरण बहुत कठोर था। उतने ही कठोर स्वर में उन्होंने कहा, "सम्राट् मैं हूँ। राज-परिषद् का समय मेरी इच्छा से निश्चित होता है।"
महामंत्री ने आश्चर्य से सम्राट् को देखा और फिर उनकी दृष्टि गुरु वसिष्ठ पर जम गई-जैसे कह रहे हों, दशरथ की राजसभा की तो यह परिपाटी नहीं है...किंतु गुरु ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे भी ऐसी ही दृष्टि से सम्राट् को देख रहे थे, जैसे कुछ समझ न पा रहे हो...
राजसभा में एक अटपटा मौन छाया रहा। किंचित प्रतीक्षा के पश्चात् महामंत्री ने स्वयं को संतुलित कर, पुनः साहस किया, "सम्राट् की अनुमति हो तो आवश्यक सूचनाएं निवेदित की जाएं।"
"आरम्भ कीजिए।" सम्राट् के शब्द सहज थे।
महामंत्री के संकेत पर, पहले चर ने सूचना दी, "सम्राट्! मैं राजसार्थों के संग यात्रा करने वाला दूत सिद्धार्थ हूँ। मैं राजकुमार भरत तथा शत्रुघ्न का समाचार लेकर आया हूँ। राजकुमार अपरताल तथा प्रलम्ब गिरियों के मध्य बहने वाली मालिनी नदी के तट से होते हुए, हस्तिनापुर में गंगा को पार कर, सकुशल आगे बढ़ गए हैं।"
सम्राट् ने पूरी तन्मयता से समाचार सुना। उनके मन में उल्लास का एक स्वर फूटा, 'भरत अयोध्या से दूर हो गया।' उनकी आकृति की कठोर रेखाएं शिथिल हो गईं। आँखों में संतोष झांकने लगा और होंठों के कोनों में हल्की-सी मुस्कान उभरी।
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