उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
तो राम कह दें कि वे पिता से सहमत नहीं हैं। जिस अभिषेक के लिए पिता इतने आतुर हैं कि न उन्हें धर्म सूझता है, न न्याय-न औचित्य न मर्यादा! वह अभिषेक राम को तनिक भी उत्सुक नहीं कर पाता। वे अभिषेक को अभी टालना चाहते हैं। वे थोड़े समय के लिए-किसी अन्य कर्त्तव्य की पूर्ति तक के लिए, इस कर्त्तव्य को टालना चाहते हैं...
पिता स्वीकार नहीं करेंगे। राम क्या करें?...
''जाओ पुत्र! अब विलंब मत करो।'' दशरथ ने आदेश दिया, ''मेरी बात मानने में तनिक भी प्रमाद मत करना। धार्मिक अनुष्ठानों के बीच भी अपनी सुरक्षा का ध्यान रखना। इस विषय में मैं लक्ष्मण को भी सावधान करना चाहता था, किंतु भय है कि कहीं वह अतिरिक्त रूप से उग्र तथा मुखर न हो उठे। उससे सारी गोपनीयता भंग हो जाएगी।''
राम अपने पलंग पर लेटे छत की ओर देख रहे थे। साथ के पलंग पर लेटी हुई सीता, अभी थोड़ी देर पहले तक. उनसे बातें कर रही थी; किंतु दिन-भर की थकान के कारण, बातों के बीच में ही, अचानक सो गई थीं। कितनी प्रसन्न थी सीता-निश्चिंत भी। निश्चिंत होने के कारण ही वे सो पाई थीं। सोई भी कैसे, जैसे थका हुआ बच्चा भोजन करते-करते बीच में ढुलक जाए-आधा कौर हाथ में, और आधा मुंह में। सीता भी ऐसे ही सो गईं-आधी बात मुख में और आधी मन में लिए-लिए।...पर राम को अब भी नींद नहीं आ रही थी। दिन भर के कामों से ने केवल शरीर बुरी तरह थका हुआ था-चिंताओं से मस्तिष्क भी फटा जा रहा था। आँखों के पापेटे भारी थे, और थकान के मारे जल रहे थे-पर नींद नहीं आ रही थी।
क्या करें राम? युवराज पद ठुकरा दें! कर्त्तव्य की उपेक्षा कैसे करें? वन न जाएं! पर वह भी कर्त्तव्य है। उसकी उपेक्षा कैसे करें? तो क्या करें? क्या?
दोनों कर्त्तव्यों में से एक को चुनना होगा।...दोनों में से अधिक महत्त्वपूर्ण क्या है?...निश्चिंत रूप से वन जाना! तो उसे ही चुनना होगा। अयोध्या का शासन यदि सम्राट् नहीं संभाल सकते तो राज-परिषद् की देख-रेख में भरत संभाल सकते हैं। भरत से सम्राट् को खतरा हो तो लक्ष्मण संभाल सकते हैं...वन तो केवल राम ही जा सकते हैं।
भरत! भरत से पिता आशंकित हैं और माता भी। क्या राम भी? नहीं! राम निश्चित रूप से कुछ नहीं कह सकते।
तो वन जाना ही तय रहा? हां! राम की ओर से तय है। किंतु पिता, माता, सीता तथा अन्य लोगों की इच्छा? उनकी प्रसन्नता? राम के अभिषेक न कराने से उनका दुख? उनकी हताशा?...
राम के मन में बैठे विश्वामित्र ठहाका मारकर हँस पड़े, 'इस-उस की इच्छा और प्रसन्नता की चिंता करते रहे, तो निभा चुके तुम दायित्व! प्रत्येक उदात्त कार्य से निकट के प्रियजन, सगे-संबंधी सदा ही हताश हुए हैं। तुम्हारा क्या विचार है, जब दधीचि ने अपनी अस्थियां दान की थीं तो उसके माता-पिता, पत्नी-बच्चे प्रसन्न हुए होंगे...बहाने मत ढूंढ़ो राम! स्वयं को प्रवंचित मत करो...'
और सहसा जैसे राम जल उठे। एक ताप उन्हें तपाता रहा, जैसे आग कच्चे घड़े को तपाती है। क्रमशः ताप क्षीण हुआ, तो राम ने पाया कि वे तप चुके हैं, पक्के हो चुके हैं...वे निर्णय कर चुके हैं।
साथ ही एक स्वर मन में गूंज रहा था-''कोई नहीं मानेगा राम! न पिता, न माता, न सीता, न लक्ष्मण...कोई नहीं।''
किंतु इस स्वर की उपेक्षा तो करनी ही थी।
बड़ी कठिनाई से रात के अंतिम प्रहर में राम को नींद आई। पर सोते हुए भी दायित्व के तनाव का बोझ मन पर रहा। वे अधिक देर सो नहीं पाए। प्रभात के चिह्न प्रकट होते ही, उनकी नींद उचट गई। नींद न भी उचटती तो उन्हें चारणों द्वारा जगा दिया जाता। आज युवराज्याभिषेक का दिन था, और प्रातः से ही समस्त कार्यक्रम निश्चित थे। उन्हें शीघ्र ही पिता के निकट उपस्थित होना था।
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