उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
लक्ष्मण उत्तर में कुछ कहने को उत्सुक थे; किंतु राम ने बात का सूत्र पहले पकड़ा, ''बंधुवर मुखर! अन्य ऋषि, मुनि, ब्रह्मचारी, आचार्य इत्यादि क्या सोचते हैं, मैं नहीं जानता। पर, मेरा विचार है कि केवल परिवेश में होने वाले अत्याचारों को सुनकर, उनकी सूचना प्राप्त कर, सामान्य व्यक्ति के मन में असहमति ही जन्म सकती है, उसके विरुद्ध तीव्र ज्वलंत, उग्र विरोध उत्पत्र नहीं होता। हम सूचनात्मक धरातल पर ही उससे जुड़ते हैं, भावनात्मक धरातल पर उससे हमारा कोई संबंध नहीं होता। इसलिए तुम इस प्रकार सोचो कि दुर्भाग्य या सौभाग्य से, वह अत्याचार तुम्हारे अपने सगे बंधु-बांधवों के साथ हुआ। तुम निजी रूप से उस अत्याचार से पीड़ित हुए। इस प्रक्रिया ने तुम्हारे मन को इतना निर्मल तथा संवेदनशील बना दिया है कि तुम्हारे मन में भावनात्मक धरातल पर उस अत्याचार के विरुद्ध घृणा जन्म लेती है। शेष लोगों को ऐसा अवसर नहीं मिला। वस्तुतः कोई समुदाय निजी रूप से पीड़ित होकर अन्याय के विरुद्ध कम उठता है, व्यक्ति ही उसका अनुभव अधिक करता है। समुदाय व्यक्तियों का अनुसरण करता है। संभव है, इस व्यक्तिगत निजी लिप्ति के कारण ही तुम अत्याचार के विरुद्ध, अपने आसपास के समुदाय का नेतृत्व कर सको।''
''साधु राम!'' वाल्मीकि बोले, ''तुम मुखर की आत्म-ग्लानि को दूर कर सकोगे। मैंने भी इसे यथा शक्ति समझाया था पर, कदाचित् मैंने इस रूप में सोचा भी नहीं। यह भी प्रकृति का द्वन्द्व ही है पुत्र! अत्याचार से पीड़ित व्यक्ति सबसे अधिक दुखी भी होता है, पर वही दुख उसे अत्याचार के विरुद्ध लड़ने की शक्ति भी देता है। अतः अत्याचार का नाश करने के लिए, उसका ग्रास बनना भी आवश्यक है। जो जितना अधिक पीड़ित और शोषित होगा, उसके मन में अत्याचार और शोषण के विरुद्ध उतनी ही उग्र ज्वलंत अग्नि धधक उठेगी, और वह न्याय का भी उतना ही बड़ा समर्थक होगा। इसे प्रकृति का द्वन्द्व न कहूँ तो क्या कहूँ-जो व्यक्ति जितना बड़ा अत्याचारी और शोषक है, वह जन-सामान्य में, न्याय के लिए उतनी ही उद्दाम आग जला देता है।''
ऋषि मौन हो गए। कुटिया में स्तब्धता छा गई। सब अपने-अपने मन की किन्हीं तहों में खोए थे। बोल कोई भी नहीं रहा था।
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