उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
उन्होंने एक धनुष उठाया, किंतु उठाते ही लगा कि धनुष भारी था; चलाने के लिए बहुत देर तक उसे हाथों में उठाए रखना सीता के लिए संभव नहीं होगा। यदि वह उसे उठाए भी रहेंगी तो अधिकांश बल और ध्यान, धनुष को उठाए रखने में ही लगा रहेगा, लक्ष्य-संधान के लिए न तो बल बचेगा न बुद्धि। इस प्रकार के भारी धनुष ले लक्ष्य-संधान सीखना तो एक विदेशी भाषा में ज्ञान प्राप्त करना है। सारी बुद्धि भाषा को सीखने में ही लग जाएगी, विषय तक पहुंचने का तो अवकाश ही नहीं होगा।
एक अपेक्षाकृत हल्का धनुष सीता ने अपने लिए पसंद किया और एक हल्का-सा खड्ग। राम के लिए उन्होंने एक भारी खड़ग उठाया; किंतु दूसरे ही क्षण, उसे वापस रख दिया। प्रशिक्षण, बराबर भार के
शस्त्रों से हो तो, अच्छा है। बाहर आकर, उन्होंने अपने, मन में गूंजते प्रश्न राम के सम्मुख रूख दिए।
राम मुस्कराए, "शस्त्रों का चुनाव, प्रशिक्षण के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है सीते! मैंने उनका चुनाव तुम पर छोड़कर देखना चाहा था कि कहीं तुम गलत शस्त्रों का चुनाव तो नहीं करतीं। शस्त्र अपने-आपमें बहुत महत्त्वपूर्ण होता है, किंतु उससे भी महत्त्वपूर्ण शस्त्र चुनाव है। शस्त्र का चुनाव, दो दृष्टियों से होना चाहिए : प्रथम, शस्त्र परिचालन की दक्षता तथा द्वितीय शत्रु के शस्त्र का आकार-प्रकार। वैदेही! ऐसे शस्त्रों से युद्ध करने का कोई लाभ नहीं, जो अपने आप में श्रेष्ठ तो हों, किंतु हम उनका परिचालन दक्षता एवं सुविधा से न कर सकें। इसका बहुत अच्छा उदाहरण जनकपुर में रखा शिव-धनुष था। अपने आप में वह शस्त्र अत्यन्त श्रेष्ठ तथा सक्षम था; किंतु यदि सम्राट् सीरध्वज उससे युद्ध करने जाते तो कोई लाभ न होता। उतना बड़ा धनुष होते हुए भी, वे निशस्त्र सरीखे ही रहते।-ठीक है?'' सीता ने सहमति में सिर हिला दिया।
दूसरी बात, शत्रु की प्रहारक शक्ति की है।'' राम ने अपनी बात आगे बढ़ाई, ''यदि शत्रु के पास धनुष है, तो हमारा खड्ग बहुत काम नही आएगा। हमें अपने शत्रु के चुनाव में सावधान रहना चाहिए कि हम उसके प्रहार को रोक भी सकें और अपनी प्रहारक शक्ति उससे अधिक भी सिद्ध कर सकें।...अब तुम अभ्यास आरंभ करो।''
सीता ने धनुष उठा लिया। सीता बाण चलातीं, और राम उसमें हुई त्रुटियां समझाकर, दूसरा बाण चलाने को कहते। कमी-कभी धनुष वह अपने हाथ में लेते और स्वयं बाण चलाकर बताते।
धनुष-बाण के पश्चात् खड्ग की बारी आई। सीता ने खड्ग पकड़ना, उसे संभालना, बाहु-संचालन तथा प्रहार की विभिन्न मुद्राओं का अभ्यास किया। दोपहर को शस्त्र-शिक्षा का कार्य स्थगित हुआ तो लक्ष्मण ने भी अपना हाथ रोक लिया। उनकी अतिथिशाला का निर्माण पूरा हो चुका था।
भोजन के पश्चात् राम अपना आश्रम छोड़ टीले के नीचे उतर आए। वह मंदाकिनी के तट के साथ-साथ आगे बढ़ते गए। उनका लक्ष्य यहां के भूगोल को समझना तथा आस-पास के लोगों का परिचय प्राप्त करना था। किंतु अपने आश्रम से बहुत दूर वह नहीं जाना चाहते थे। यद्यपि आश्रम में लक्ष्मण उपस्थित थे; और उनके रहते किसी प्रकार की आशंका नहीं थी-फिर भी परिवेश से भली प्रकार परिचित हुए बिना वह अधिक दूर नहीं जाना चाहते थे।
लगता था, मंदाकिनी के इस तट पर दूर तक कोई ग्राम या आश्रम नहीं था। किंतु दूसरे तट पर कुछ हलचल थी, जैसे कुछ लोग उधर रहते हों। उनकी वेश-भूषा तपस्वियों जैसी थी। संभवतः उधर कोई आश्रम था।
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