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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14994
आईएसबीएन :9788181431950

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अवसर

शस्त्राभ्यास थम गया। ''भाभी! यह कुंभकार है। इसे सुमेधा ने भेजा है।'' लक्ष्मण ने उसका परिचय दिया।

राम ने देखा, कुंभकार की आँखों में जीवन की चमक थी। मुख की रेखाएं, उसके समझदार होने की ओर संकेत करती थीं। यह व्यक्ति सुमेधा के गांव का था, किंतु सुमेधा के समान अपने जीवन से संतुष्ट नहीं था। उसके मुख-मण्डल पर कुछ सम्मान, कुछ भय, कुछ जिज्ञासा के मिश्रित भाव थे।

''आप लोग कौन हैं?'' वह पहला वाक्य बोला।

सुमेधा ने केवल अपनी बात कही थी-सीता सोच रही थीं-उन लोगों के विषय में उसने कुछ भी नहीं पूछा था। उसकी आँखें अपने परिवेश की ओर से बंद थी, मस्तिष्क सोया हुआ था। यह व्यक्ति वैसा नहीं था। वह जागरूक था। उसने अपने विषय में कुछ बताने से पूर्व उनके विषय में जिज्ञासा की थी।

''मैं राम हूँ! यह मेरे छोटे भाई हैं, लक्ष्मण! यह मेरी पत्नी हैं, सीता; और यह है मेरा मित्र मुखर; हमारे आश्रम में शस्त्राभ्यास कर रहा है।''

''आप लोग यहां क्या कर रहे हैं?'' कुंभकार बोला।

लक्ष्मण के चेहरे पर आवेश झलका; किंतु राम ने उन्हें संकेत से शांत करते हुए कहा, ''हम लोग अपने पिता के आदेश से वन में अए हैं। यहां वैसे ही वास कर रहे हैं, जैसे साधारण वनवासी निवास करते हैं, जैसे तुम निवास कर रहे हो।''

इस बार कुंभकार के चेहरे पर भावावेश आया, ''जैसे मैं निवास कर रहा हूँ।...एक दिन कुंभ-निर्माण छोड़कर, एक मूर्ति का निर्माण करने लगा था, तो तुंभरण ने मार-मार कर मेरी खाल उधेड़ दी थी। उस दिन उसे कुछ बर्तनों की आवश्यकता न होती, तो वह अवश्य ही मुझे मारकर खा जाता। और आप लोग तो शस्त्रों का अभ्यास कर रहे हैं-यहां तक कि यह महिला भी।''

''शस्त्राभ्यास में तुम्हें क्या आपत्ति है?'' राम ने पूछा।

''मुझे कोई आपत्ति नहीं है। आपत्ति है तुंभरण को।'' कुंभकार जल्दी-जल्दी बोला, ''उसका कहना है कि मेरा दादा कुंभकार था, बाप कुंभकार था, मुझे भी कुंभकार ही बनना पड़ेगा। मैंने कुछ और बनने का तनिक भी प्रयत्न किया तो वह मुझे आँवे में पकाकर मार डालेगा। यहां तक कि मुझे बर्तन छोड़, मिट्टी के खिलौने भी नहीं बनाने देगा। जहां तक शस्त्रों की बात है उन्हें रखने का अधिकार केवल राक्षसों को है।''

''क्यों? राक्षसों को ऐसा विशिष्ट अधिकार क्यों है, जो अन्य लोगों को नहीं है?'' लक्ष्मण ने पूछा।

''इसलिए कि उनका धर्म है शस्त्र रखना, शस्त्र-परिचालन सीखना, शस्त्रों का प्रयोग करना। मेरा धर्म है, उनके घर के लिए बर्तनों का निर्माण करना। मुझे अपना धर्म नहीं छोड़ना चाहिए; और यदि मैंने छोड़ा तो वह मुझे उसका दंड देगा।''

''इसका निर्णय कौन कर सकता है कि तुंभरण का धर्म दिन में छत्तीस बार जमीन पर नाक रगड़ना नहीं है?'' लक्ष्मण ने पूछा।

कुंभकार ने अपनी जीभ दांतों के बीच दबा ली और भयभीत दृष्टि से चारों ओर देखा। लक्ष्मण जोर से हँस पड़े, ''किससे डर रहे हो मित्र?''

''तुंभरण से।'' कुंभकार अब भी सहमा हुआ था।

''किसी तुंभरण का साहस नहीं है कि वह राम के आश्रम की ओर आँख उठाकर देखे। तुम निर्भय रहो।''

कुंभकार का भय कुछ हल्का पड़ा, किंतु वह पूर्णतः दूर नहीं हुआ था, ''तुम्हारे पास दो-तीन धनुष हैं। तुंभरण के पास कई धनुष और खड्ग हैं, उसके परिवार के प्रत्येक के पास शस्त्र हैं।''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पंद्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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